भावना ठाकर |
पर ये मत भूलो की चाहे कितना भी ऊँची उड़ा लें अपनी ख़्वाहिशों की पतंग उसकी डोर उस अनदेखी अन्जानी शक्ति के हाथ में है। कब कट जाए कोई नहीं जानता। ज़िंदगी हमारी चाहे कितनी भी रंगीन फ़िज़ाओं में क्यूँ न कटी हो जैसे पतंग का अंजाम कूड़े का ढ़ेर या इलेक्ट्रिक का खंभा या तार होता है, वैसे ही इंसान का अंजाम राख के ढ़ेर में बदलना है। संक्रांति के पर्व पर पतंग उड़ाते ज़रा सी तुलना करके देखेंगे तो मालूम होगा हमारी ज़िंदगी भी पतंग सी ही है। जब तक किस्मत और लकीरों की हवा साथ देगी हमें उड़ने से कोई नहीं रोक सकता। पर जैसे ही हवा का रुख़ मूड़ा पंचतत्व में विलीन होना तय है ख़ाक़ में तब्दील होते। बिता अवसर लौटकर नहीं आता, मन जीवन भर पछताएगा कि था वक्त जब हाथ में कुछ कर न सका। गलतियों से पेंच लड़ाकर बेवक्त ज़िंदगी की पतंग को बेरंग होते कभी कटने मत दो, जब तक उम्र का फ़लक साथ दे उड़ा लो अपने मन की इंद्रधनुषी पतंग ज़िंदगी के आसमान में रंगबिरंगी सपनों के साथ। पर अपने जीवन पतंग की डोर किसी ओरों के हाथों मत सौंपे। खुद ही एक सिरा सकारात्मकता की ऊँगली की गिरह से बाँधकर रखिए जब चाहे ऊँची उड़ान भरिए, जब चाहे ढ़ील दें और जब चाहे पैच लड़ाईये ताकि कोई कमज़ोर धागा आपके हौसलों के मजबूत धागे को काटने की हिम्मत ना करें।
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