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जयशंकर प्रसाद की हिन्दी साहित्य को देन विषय पर परिचर्चा

विश्व भाषा अकादमी, भारत की तेलंगाना इकाई का ऑनलाइन आयोजन 

(हैदराबाद। 
सरिता सुराणा)
विश्व भाषा अकादमी, भारत की तेलंगाना इकाई के तत्वावधान में एक परिचर्चा गोष्ठी का ऑनलाइन आयोजन किया गया। परिचर्चा गोष्ठी छायावाद के प्रमुख आधार स्तम्भ कविवर जयशंकर प्रसाद की जन्म जयन्ती एवं छायावाद के सौ वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में आयोजित की गई। इसका विषय रखा गया था- 'छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद की हिन्दी साहित्य को देन'।
तेलंगाना इकाई की अध्यक्ष सरिता सुराणा ने इस गोष्ठी की अध्यक्षता की। इस गोष्ठी के मुख्य वक्ता थे हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान चेन्नई निवासी बी.एल.आच्छा। आर्या झा की सरस्वती वन्दना से कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ। अकादमी की युवा सदस्य मंजुला दूसी के पतिदेव के आकस्मिक निधन पर दो मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई। सभी सदस्यों ने इस दुखद घटना के लिए अपनी शोक संवेदनाएं प्रकट की। तत्पश्चात् अध्यक्ष ने सभी सदस्यों और प्रमुख वक्ता का शब्द पुष्पों से स्वागत किया। 
परिचर्चा गोष्ठी को आरम्भ करते हुए उन्होंने जयशंकर प्रसाद के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि कविवर जयशंकर प्रसाद छायावादी कवियों में अग्रगण्य के रुप में जाने जाते हैं। 'कामायनी' जैसे युग प्रवर्तक महाकाव्य के प्रणेता और 'आंसू' जैसे वेदना के सजल-तरल गायक के रूप में वे हिन्दी साहित्याकाश में सदैव अमर रहेंगे। सर्वतोमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार प्रसाद जी का जन्म 30 जनवरी 1889 ई. को उत्तर-प्रदेश के वाराणसी में हुआ था। इनके दादाजी का नाम शिवरतन साहू और पिताजी का नाम देवीप्रसाद था। इनके बड़े भाई का नाम शंभू रतन था। इनके परिवार का काशी में तम्बाकू का व्यापार था इसलिए वह 'सुंघनी साहू' के नाम से विख्यात था। इनके दादाजी भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त थे। इनके पिताजी भी बहुत उदार, दानी और साहित्य प्रेमी थे। इनका बचपन बहुत ही सुखपूर्वक बीता लेकिन बाद में एक-एक करके इन्होंने अपने पिता-माता और बड़े भाई को खो दिया। 17 वर्ष की आयु में ही इनके ऊपर पूरे परिवार के पालन-पोषण का दायित्व आ गया। इनकी शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। इन्होंने दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे योग्य एवं अनुभवी शिक्षक से संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। साथ ही साथ अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू और फारसी भाषाओं और वेद, पुराण, इतिहास और साहित्य का भी गहन अध्ययन किया। इन्होंने मात्र 9 वर्ष की आयु में अपने गुरु 'रसमय सिद्ध' को ब्रजभाषा में 'कलाधर' नामक सवैया लिखकर दिखाया था।
प्रसाद जी ने हिन्दी साहित्य में छायावाद की स्थापना की, जिसके द्वारा खड़ी बोली हिन्दी के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य रचना की सिद्ध भाषा बन गई। अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर उन्होंने हमें कामायनी, आंसू, चित्राधार, लहर और झरना जैसी काव्य कृतियां और आंधी, इन्द्रजाल, छाया और प्रतिध्वनि जैसी कहानियां विरासत में दीं। उन्होंने कंकाल, इरावती और तितली जैसे प्रसिद्ध उपन्यास लिखे साथ ही साथ चंद्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, जनमेजय का नाग यज्ञ, अजातशत्रु, राज्यश्री, कामना व एक घूंट आदि नाटकों की रचना की। उन्होंने नाटक के क्षेत्र में अनेक नए-नए प्रयोग किए, जिससे एक नए युग का सूत्रपात हुआ और उसे 'प्रसाद युग' के नाम से जाना जाने लगा। मगर कालान्तर में क्षय रोग से ग्रस्त होने के कारण मात्र 48 वर्ष की उम्र में 15 नवम्बर सन् 1937 ईस्वी को उनका देहान्त हो गया। इतनी कम उम्र में भी उन्होंने हिन्दी साहित्य को जो समृद्धि और ऊंचाइयां प्रदान की, उसके लिए सम्पूर्ण हिन्दी जगत उनका आभारी रहेगा। 
परिचर्चा को गति देते हुए सुनीता लुल्ला ने कहा कि हिन्दी साहित्य में छायावाद के पूर्व द्विवेदी युग आता है। इस समय कविता ब्रजभाषा को छोड़कर खड़ी बोली हिन्दी की ओर मुड़ चली थी। द्विवेदी युग में चलते-चलते कविता उपदेशात्मक और बोझिल होने लगी थी, साथ ही नीरस भी। तभी छायावाद के चार स्तम्भों का साहित्याकाश में एक साथ उदय हुआ। यह हिन्दी साहित्य के रोमांटिक उत्थान का युग था। इसमें भाषा के सौंदर्य ने खड़ी बोली को पूर्णतः स्थापित कर दिया। एक नयी बात और हुई, वह यह कि इन कवियों ने नारी सौंदर्य और प्रकृति के मानवीकरण को प्रश्रय दिया। साथ ही युग के साहित्य की माँग को भी अक्षुण्ण रखा। हिन्दी साहित्य में केवल कविता में ही नहीं अपितु कहानी, उपन्यास, नाटक और निबन्ध के क्षेत्र में भी लगातार नयापन आया। जयशंकर प्रसाद जी ने लगभग हर विधा में लेखन किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि छायावादी साहित्य भण्डार में प्रसाद जी का योगदान अक्षुण्ण है। 
मुख्य वक्ता बी. एल.आच्छा ने अपने वक्तव्य में कहा कि प्रसाद जी सांस्कृतिक द्वंद्व की चेतना के कवि थे। वे अन्तरात्मा की आवाज को मजबूती प्रदान करने वाले कवि थे, आत्मा की मजबूती के बिना देश मजबूत नहीं हो सकता। जो लोग उन्हें पलायनवादी कहते हैं वे यह भूल जाते हैं कि श्रद्धा और मनु के माध्यम से उन्होंने नई सृष्टि के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। इड़ा मनुष्य के मनोभाव हैं, वह बुद्धि और विज्ञान का प्रतीक है। मनु इच्छा और क्रिया का संगम है। कुछ लोग कहते हैं कि छायावाद ब्रिटिश कवि वर्ड्सवर्थ के विचारों का प्रतिरूप है लेकिन यह गलत है। सिर्फ इस एक पंक्ति के आधार पर-'ले चल मुझे भुलावा देकर नाविक मुझे धीरे-धीरे' उन्हें पलायनवादी कहना कहां का न्याय है? महाकवि तीन कालों का दृष्टा होता है। 1920-1940 का काल सांस्कृतिक संघर्ष का काल था, इसी बीच द्वितीय विश्व युद्ध भी लड़ा गया। अपने वक्तव्य में अनेक उदाहरणों के माध्यम से उन्होंने बहुत ही सारगर्भित बातें बताई। प्रदीप देवीशरण भट्ट ने भी इस विषय पर अपने विचार रखे। सुहास भटनागर, डॉ.सुमन लता और संगीता जी. शर्मा ने इस परिचर्चा गोष्ठी में सम्मिलित होकर इसका आनन्द उठाया। आर्या झा के धन्यवाद ज्ञापन के साथ गोष्ठी सम्पन्न हुई।

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