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देशभक्त ज्ञानसाधक डॉ. जगदीशचंद्र जैन

प्राकृत, जैनविद्या और प्राच्यविद्या के मूर्धन्य मनीषियों में डॉ. जगदीशचन्द्र जैन का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विख्यात है। वे पश्चिमी जर्मनी के कील विश्वविद्यालय में रिसर्च प्रोफेसर, चीन के पीकिंग विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर, वैशाली प्राकृत संस्थान में प्राकृत तथा जैनविद्या के प्रोफेसर एवं शोध-निर्देशक तथा मुम्बई के रामनारायण रुइया महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष और शोध-निर्देशक रहे। उन्होंने यूरोप, कनाडा, संयुक्त राष्ट्र अमरीका और दक्षिण अमरीका के विश्वविद्यालयों में भारतीय संस्कृति पर व्याख्यान दिये। 
प्राचीन भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन, प्राकृत साहित्य, प्राकृत-संस्कृत जैन कथा साहित्य, साहित्यालोचन, जीवन-चरित, बाल-साहित्य आदि विषयों पर उनकी लगभग 80 पुस्तकें प्रकाशित हुईं। देश-विदेश की अनेक शोध-पत्रिकाओं में उनके लेख और शोध-लेख प्रकाशित हुए। प्राकृत साहित्य का इतिहास, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, भारत के प्राचीन जैन तीर्थ, विश्व साहित्य की झाँकियाँ, द वसुदेवहिंडी : ऐन ऑथेंटिक जैन वर्ज़न ऑव द बृहत्कथा आदि अनेक पुस्तकें आज भी शोधार्थियों के लिए उपयोगी हैं। जैन दर्शन पर उनकी एक पुस्तक का पुर्तगाली भाषा में भी अनुवाद हुआ। उनकी अंग्रेजी और हिन्दी में लिखित पुस्तकों के कुछ अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हुए। 
प्राकृत भाषा के जैन आगम साहित्य तथा प्राकृत-संस्कृत में आगमों पर लिखे गये चार प्रकार के व्याख्या साहित्य (निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका) को पंचांगी कहा जाता है। पंचांगी में आई कथा-कहानियों पर डॉ. जैन ने बहुत ही श्रमपूर्ण और महत्वपूर्ण शोधकार्य किया। उन्होंने प्रमाणित किया कि विश्वविख्यात कथाग्रंथ ‘पंचतंत्र’ जैन विद्वान पूर्णभद्रसूरि द्वारा रचित है। उन्होंने यह भी बताया कि अनेक जैन कथाएँ अनेक परिवर्तित रूपों में भारतीय साहित्य और विश्व साहित्य का हिस्सा बन गईं। उन्होंने बाइबिल में आई कुछ कहानियों का मूल स्रोत भी जैन कथा साहित्य बताया। उनके शोध में प्राचीन भारतीय साहित्य, लोक साहित्य और भारतीय धर्मों के साहित्य में उपलब्ध कथाओं के आदान-प्रदान का रोचक विवरण मिलता है। उनकी ‘दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ’ पुस्तक में हिन्दी साहित्यकार हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा कि जैन साहित्य बहुत विशाल है। लेकिन ब्राह्मण और बौद्ध शास्त्रों की जितनी चर्चा हुई है, अभी उतनी चर्चा इस साहित्य की नहीं हुई है। 
20 जनवरी 1909 को उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के पास बसेड़ा ग्राम में जन्मे जगदीशचन्द्र का बचपन और यौवन बहुत कष्टों और संघर्षों में बीता। जब वे मात्र ढाई वर्ष के थे, जब उनके पिता कानजीमल जैन का प्लेग की बीमारी से देहान्त हो गया। उनकी माता ने बड़ी कठिनाइयों में दो बच्चों का पालन-पोषण किया। माँ के साथ ही उनके बड़े भाई गुलशनराज कम उम्र में ही परिवार के आर्थिक संबल बने। कुछ ही वर्षों में चेचक की बीमारी से बड़े भाई की एक आँख की रोशनी चली गई। कठिनाइयों के बीच माँ और अग्रज ने जगदीशचन्द्र को पढ़ाने और आगे बढ़ाने में सहयोग किया। 
गाँव की पाठशाला और गुरुकुल में पढ़ने के उपरान्त 1923 में जगदीशचन्द्र ने स्याद्वाद जैन महाविद्यालय, वाराणसी में दाखिला लिया। वहाँ उन्होंने जैनविद्या, प्राच्यविद्या और आयुर्वेद का अध्ययन किया। अनेक अभावों एवं अड़चनों के बावजूद बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्होंने स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। बाद में वे एक शोधार्थी के रूप में विश्वभारती विश्वविद्यालय, शान्ति निकेतन भी गये, जहाँ वे रवीन्द्रनाथ टैगोर से प्रभावित हुए। वहाँ से प्राप्त शोधवृत्ति से उन्हें राहत मिली। 
1929 में उनका विवाह कमलश्री से हुआ, जो एक सम्पन्न परिवार की बेटी थी। विवाह के बाद कमलश्री ने अपने ससुराल की स्थिति और पति की भावना को गहराई से समझा। तदनुसार उसने स्वेच्छा से सारी सुख-सुविधाओं को छोड़ सादगी और संघर्ष का जीवन अपना लिया। जगदीशचन्द्र में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। इसी भावना से वे विद्यार्थी जीवन से ही स्वाधीनता संग्राम की गतिविधियों में भाग लेते रहे थे। देशभक्ति से परिपूर्ण उनके भाषण युवाओं को प्रभावित करते थे तो अंग्रेज सरकार को उद्वेलित करते थे। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा प्रवर्तित सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भी भाग लिया तथा जेल की यातनाएँ सहीं। उनके जेल में होने के दौरान उनकी पत्नी ने बहुत धैर्य और साहस का परिचय दिया। 
रोजी-रोटी की तलाश में एक बार वे अजमेर पहुँचे। वहाँ एक स्कूल में हिन्दी शिक्षक की नौकरी कर ली। वहाँ वे गांधी टोपी पहनकर स्कूल जाते। उस समय गांधी टोपी स्वतंत्रता के सेनानियों की पहचान बन गई थी। विद्यालय प्रशासन ने उनको साफ शब्दों में कह दिया कि चूंकि अजमेर ब्रिटिश भारत का राज्य है, इसलिए वे गांधी टोपी नहीं पहन सकते। जगदीशचन्द्र ने अपनी नौकरी छोड़ दी, लेकिन निज देशाभिमान नहीं छोड़ा। 
1934 में सैंट मेरीज यूरोपियन हाई स्कूल में पढ़ाते हुए उन्हें अच्छी हिन्दी पुस्तकों का अभाव लगा। इस अभाव की पूर्ति में उन्होंने सरल श्रेष्ठ भाषा में हिन्दी पाठ्यपुस्तकों का एक सेट तैयार किया। उन पुस्तकों से उन्होंने यूरोपियन विद्यार्थियों को हिन्दी पढ़ाई। देश की स्वतंत्रता के बाद महाराष्ट्र सरकार के माध्यमिक विद्यालयों के हिन्दी पाठ्यक्रम में भी उनकी वे हिन्दी पुस्तकें निर्धारित की गई। 
डॉ. जगदीशचन्द्र को महात्मा गांधी की हत्या के षड़यंत्र का पता चल गया था। उन्होंने बार-बार सरकार को चेताया कि वे महात्मा की माकूल सुरक्षा करें। उनकी चेतावनी को सरकार ने अनसुना कर दिया। बाद में गांधीजी की हत्या के मुकदमे में डॉ. जगदीशचन्द्र भारत सरकार की ओर से प्रमुख गवाह बने। गांधीजी की हत्या से विचलित होकर उन्होंने दो पुस्तकें लिखीं- आई कुड नोट सेव बापू (मैं बापू को नहीं बचा सका) तथा द फोरगोटन महात्मा (विस्मृत महात्मा)। 
स्वतंत्रता सेनानी और जैन विद्वान डॉ. जगदीशचन्द्र का 28 जुलाई 1994 को मुम्बई में निधन हुआ। उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप बोम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ने एक मार्ग का नामकरण ‘डॉ. जगदीशचन्द्र जैन मार्ग’ किया। 28 जनवरी 1998 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में दो रुपये मूल्यवर्ग का डाक-टिकट जारी किया। डाक-टिकट पर उनके चित्र के साथ राणकपुर जैन मन्दिर के गोल-पट्टक तथा मोहनजोदड़ो से प्राप्त प्राचीन मुद्रा अंकित की गई। इस अंकन में जैन धर्म की उस समृद्ध प्राचीन विरासत को दर्शाया गया, जिसके अन्वेषण और उत्कर्ष में डॉ. जैन ने अविस्मरणीय योगदान किया।
*डॉ. दिलीप धींग 
(निदेशक : अंतरराष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन व शोध केन्द्र)

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