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अकेलापन

 

✍️राजीव डोगरा 'विमल'

कुछ समझा नहीं आता
क्या हो रहा है
और क्या नहीं हो रहा,
बिगड़े हुए लोगों की तरह
हर जज्बात
बिगड़ गया हैं,
बिखरे हुए ख्वाबों की तरह
हर रिश्ता
बिखर गया है,
संभालने की कोशिश तो बहुत की
टूटते हुए हर पल को
मगर समय की तराजू में
सब कुछ
खुद ही तुलता चला गया।
कोई अपना पराया बना
तो कोई पराया अपना बना
मगर समय की दरारों में
हर कोई फासले भरता हुआ
चलता चला गया।



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