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सत्याग्रह के जनक थे महात्मा गांधी


✍️सरिता सुराणा





स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन में महात्मा गांधी का अप्रतिम योगदान रहा है। जनवरी 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए। इससे पहले उन्होंने वहां पर हो रहे शोषण, अन्याय और रंगभेद की नीति के विरुद्ध सत्याग्रह आन्दोलन किया था और उसमें उन्हें सफलता भी मिली थी। स्वदेश लौटने पर उन्होंने भारत माता की आजादी के लिए कई आन्दोलन किए।






दक्षिण अफ्रीका में हुआ था सत्याग्रह का जन्म गांधीजी के अहिंसात्मक आंदोलन और सत्याग्रह का जन्म दक्षिण अफ्रीका में ही हुआ। सन् 1906 में वहां की सरकार ने भारतीयों के पंजीकरण के लिए जो अपमानजनक अध्यादेश जारी किया था, तब गांधीजी वहां पर ही थे। यह अध्यादेश वहां पर रहने वाले भारतीयों और गांधीजी को मंजूर नहीं था। इसके विरोध में जोहान्सबर्ग में गांधीजी के नेतृत्व में एक विरोध सभा का आयोजन किया गया। गांधीजी ने बिना किसी हिंसा के वहां के सुरक्षाकर्मियों के सामने उस अध्यादेश को आग के हवाले कर दिया। इसके लिए उन पर लाठी चार्ज किया गया लेकिन वे पीछे नहीं हटे।

गांधीजी अप्रैल 1893 में दक्षिण अफ्रीका गए थे और 1915 में भारत लौटे। वे वहां पर जितने लोकप्रिय थे, उतने भारत में नहीं थे, क्योंकि अभी तक उनका संघर्ष और आन्दोलन सब वहां पर बसे हुए भारतीयों तक ही सीमित था। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी उनकी स्वदेश वापसी का स्वागत किया और उन्हें 'शांति निकेतन' आने का निमंत्रण दिया। गांधीजी यहां की परिस्थितियों से और शांति निकेतन से परिचित नहीं थे। उनके राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले चाहते थे कि वे सक्रिय राजनीति में हिस्सा लें और स्वतंत्रता आन्दोलन में अपना योगदान दें। तब गांधीजी ने उन्हें वचन दिया कि वे अगले एक वर्ष तक भारत में रहकर यहां के हालात का अध्ययन करेंगे और इस दौरान उनके केवल कान खुले रहेंगे, मुंह पूरी तरह बंद रहेगा।

एक वर्ष समाप्त होने पर गांधीजी अहमदाबाद स्थित साबरमती नदी के तट के पास आकर बस गए। उन्होंने वहां पर आश्रम बना लिया, वे इसे 'सत्याग्रह आश्रम' कहकर संबोधित करते थे। प्रारम्भ में केवल 25 पुरुष और महिलाएं ही स्वयंसेवक के रूप में इससे जुड़े, जिन्होंने सत्य, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह और अस्तेय के मार्ग पर चलने का संकल्प लिया। इन सबने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा में बिताने का निश्चय किया।

गांधीजी का मौन व्रत पूर्ण

अब गांधीजी का मौन व्रत समाप्त हो चुका था। अब वे देश में भाषण देने के लिए तैयार थे। 4 फरवरी 1916 के दिन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में छात्रों, प्रोफेसरों, महाराजाओं और अंग्रेज अधिकारियों के समक्ष उन्होंने अंग्रेजी में भाषण दिया। अंग्रेजी में बोलने पर उन्होंने खेद भी प्रकट किया। उन्होंने भारतीय राजाओं की तड़क-भड़क, शानो-शौकत, हीरे-जवाहरात तथा अन्य आयोजनों पर करने वाले खर्च को फिजूलखर्ची बताया और कहा कि एक ओर तो देश में अधिकांश लोग भूखे मर रहे हैं और दूसरी ओर इस तरह पैसों की बरबादी की जा रही है। उनका यह भाषण सुनकर कई राजकुमारियों और अंग्रेज अधिकारियों ने सभा का बहिष्कार कर दिया। लेकिन उनके इस भाषण की चर्चा पूरे देश में हो गई।

बिहार का चम्पारण सत्याग्रह

चम्पारण सत्याग्रह से भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक नए अध्याय का सूत्रपात हुआ। सन् 1917 में बिहार के चम्पारण जिले में गांधीजी की अगुवाई में भारत का पहला नागरिक अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया गया। इस आन्दोलन के जरिए गांधीजी ने लोगों के विरोध को सत्याग्रह के माध्यम से जनसामान्य एवं सरकार तक पहुंचाने का प्रयास किया। यह पूर्णतया अहिंसक प्रतिरोध था। गांधीजी इसके द्वारा किसानों की दुर्दशा को दूर करना चाहते थे। 

अंग्रेजों ने चम्पारण के पट्टेदार किसानों को जबरन बड़े पैमाने पर नील की खेती करने का हुक्म दिया था। तब गांधीजी ने अन्य सक्षम वकीलों के साथ वहां के लोगों को संगठित किया और शिक्षित भी किया। साथ ही आजीविका के अन्य साधनों के बारे में भी बताया ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सकें। यह आन्दोलन न केवल अंग्रेजों द्वारा नील की खेती के फरमान को रद्द करवाने में सफल हुआ बल्कि गांधीजी के अहिंसात्मक सत्याग्रह का यह प्रथम प्रयास भी सफल रहा। इससे आम नागरिकों में शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने की हिम्मत आई और वे गांधीजी के नेतृत्व में आगे बढ़ने के लिए तैयार हो गए।

मिल मालिकों और मजदूरों के बीच समझौता

गांधीजी जब चम्पारण में ही थे तभी अहमदाबाद के मिल मजदूरों और मिल मालिकों के बीच मतभेद हो गए। मजदूरों ने गांधीजी को तत्काल साबरमती बुलाया और उन्हें स्थिति से अवगत कराया। मिल मालिक मजदूरों के खिलाफ कठोर कदम उठाने जा रहे थे और गांधीजी उन दोनों के बीच समझौता कराना चाहते थे। जांच पड़ताल और दोनों पक्षों से बातचीत के बाद गांधीजी ने मजदूरों के पक्ष में निर्णय दिया। लेकिन मिल मालिक मजदूरों को कोई भी आश्वासन देने के लिए तैयार नहीं थे। तब मजदूरों का उत्साह घटता गया और हिंसा की आशंका बढ़ने लगी। तब इस समस्या को सुलझाने के लिए गांधीजी स्वयं अनशन पर बैठ गए। इसके बाद मालिकों और मजदूरों की एक बैठक हुई, जिसमें बातचीत के द्वारा समस्या का हल निकाला गया और हड़ताल समाप्त हो गई।

गुजरात का खेड़ा सत्याग्रह

गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों की फसलें बरबाद हो चुकी थी, फिर भी अंग्रेज़ सरकार द्वारा उन पर लगान चुकाने के लिए दबाव डाला जा रहा था। गांधीजी ने वहां के एक गांव से दूसरे गांव तक की पदयात्रा प्रारम्भ की और सत्याग्रह का आह्वान किया। उन्होंने किसानों से कहा कि वे तब तक सत्याग्रह के मार्ग पर चलें, जब तक कि सरकार उनका लगान माफ करने की घोषणा न करे। लगभग चार महीने तक ये अहिंसात्मक संघर्ष चला तब हारकर सरकार को गरीब किसानों का लगान माफ करना पड़ा। इसकी सफलता गांधीजी के सत्याग्रह की एक और बड़ी सफलता थी।

दांडी मार्च या नमक सत्याग्रह की शुरुआत

दांडी मार्च की शुरुआत 12 मार्च 1930 में गांधीजी के नेतृत्व में हुई थी।24 दिनों तक चली यह पदयात्रा अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से शुरू होकर नवसारी स्थित छोटे से गांव दांडी तक गई थी।  यह आंदोलन नमक पर ब्रिटिश सरकार के एकाधिकार के खिलाफ किया गया था। उस समय चाय, कपड़ा और नमक जैसी चीजों पर अपना एकाधिकार स्थापित कर रखा था। इंग्लैंड से आनेवाले नमक के लिए भारतीयों को कई गुना ज्यादा पैसे देने पड़ते थे। उन्हें स्वयं नमक बनाने का अधिकार नहीं था। इसी कानून के खिलाफ गांधीजी के नेतृत्व में हुए दांडी मार्च में शामिल उनके अनुयायियों ने 240 मील लंबी यात्रा करके  समुद्र के पानी से नमक बनाकर इस कानून को तोड़ा। 

असहयोग आंदोलन

प्रथम विश्वयुद्ध के बाद महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया, तब कांग्रेस की बागडोर उनके हाथों में आ गई। यह आन्दोलन शुरू करने के पीछे सबसे प्रमुख कारण था- अंग्रेजी सरकार की दमनकारी नीतियां। 1919 का रोलेट एक्ट जो भारतीयों की नजर में काला कानून था। जब भारतीय विधानसभा में इस विधेयक पर चर्चा हो रही थी तो गांधीजी वहां पर दर्शक के रूप में उपस्थित थे। इस एक्ट के विरोध में अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा आयोजित की गई। जनरल डायर ने सभा को नहीं रोका लेकिन सभा शुरू होने के बाद वहां पर पहुंच गया और अंग्रेज सेना ने अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। जिसमें सैंकड़ों निर्दोष स्त्री- पुरुष और बच्चे भून डाले गए। पंजाब के लोगों की यह दुर्दशा देखकर गांधीजी विचलित हो गए। तब उन्होंने सरकार के खिलाफ असहयोग आन्दोलन की शुरुआत की। चार चरणों में चले इस आंदोलन को कुचलने की हरसंभव कोशिश की गई लेकिन सरकार विफल रही। बाद में इस आंदोलन के हिंसक रूप ले लेने के कारण गांधीजी ने इसे स्थगित कर दिया। जिससे बहुत से नेता गांधीजी से नाराज़ हो गए।

भारत छोड़ो आन्दोलन

यह आन्दोलन 8 अगस्त 1942 को प्रारम्भ हुआ था। इस दिन बम्बई के गोवालिया टैंक मैदान पर अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति ने 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव पारित किया था। इस आन्दोलन ने ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें हिला दी। यहां पर गांधीजी ने भाषण दिया। उन्होंने कहा- 'मैं आपको एक मंत्र देना चाहता हूं, जिसे आप अपने दिल में उतार लें। यह मंत्र है, करो या मरो।

इस आन्दोलन के शुरू होते ही गांधी, नेहरू, पटेल और आजाद सहित कई बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेज अधिकारियों और सरकार ने सोचा कि ऐसा करने से आन्दोलन ठण्डा पड़ जाएगा, लेकिन तब तक यह पूरे देश में फैल चुका था।

नेताओं की गिरफ्तारी के बाद जनता ने स्वयं इस आन्दोलन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। कहीं-कहीं हिंसक प्रदर्शन भी हुए और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया।। आखिरकार जनता की जीत हुई और अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ा। यह थी सत्याग्रह की जीत और उन तमाम क्रांतिकारियों के बलिदान का प्रतिफल कि 15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और आज हम सब खुली हवा में सांस ले रहे हैं।

 

*सिकंदराबाद

 


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