✍️डॉ गोपालकृष्ण भट्ट आकुल
रूठ कर चला गया, शहर मिला नहीं मुझे.
पुकारता फिरा किया, मगर मिला नहीं मुझे.
रुक गई चहल पहल
न शोरगुल न धूम है
बंद हैं दुकान सब,
न भीड़ ना हुजूम है.
सोच में बैठा ग़रीब
कोसता नसीब को
क्या भविष्य होगा यह
किसी को ना मालूम है
बच्चा न हो डरा हुआ, वो घर मिला नहीं मुझे.
रूठ कर चला गया, शहर,......
रूठ कर चला गया, शहर,......
मेरे शहर को लग गई
शायद नज़र बुरी कोई
देश के कोने कोने से
आ रहा था हर कोई.
गली गली से बहती थी
सरस्वती सुबह से शाम
आज है अदृश्य जैसे
स्वप्न था सुंदर कोई
काशी सा जो पुजा किया, मंज़र मिला नहीं मुझे.
रूठ कर चला गया, शहर,......
रूठ कर चला गया, शहर,......
आदमी ही आदमी से
दूर है जैसे अछूत
डरा हुआ है इस क़दर
हर आदमी लगता है भूत
आतिथ्य से लुभाता था
कोई न भेद भाव था
बने अटूट जो संबंध
मिट गए सभी सबूत.
रात दिन देखा किया, आदर मिला नहीं मुझे.
रूठ कर चला गया, शहर......
रूठ कर चला गया, शहर......
सुलग रहे हैं श्मसान
जल रहा हर स्वप्न है
मेरे शहर की हर गली में
एक लाश दफ़्न है.
जानवर सी हो गई गत
मौत पर इंसान की
अंत्यकर्म संस्कार भी
लगें सब विघ्न हैं.
कितनों ने जन्म लिया, युगंधर मिला नहीं मुझे.
रूठ कर चला गया, शहर......
रूठ कर चला गया, शहर......
झालरों व शंख से
न तालियों से ही कहीं
लौटीं नहीं खुशियाँ मेरी
दीवालियों से भी कहीं
रात -दिन मेरे मगर
यह वक्त बपौती नहीं.
सोऊँ मैं कितना आँख भी
अब स्वप्न सँजोती नहीं.
हर पहर बजा किया, गजर मिला नहीं मुझे.
रूठ कर चला गया, शहर......
कहता न कोई घोषणा
करता है उसे लापता
लौट आएगा वो एक दिन
उन्हें भी है पता.
लौट आ मेरे शहर !!!
कोई तुझे भूला नहीं
गरीब के घर आजकल
जलता अभी चूल्हा नहीं.
अभी तो जल रहा दिया, फ़जर मिला नहीं मुझे.
रूठ कर चला गया शहर......
रूठ कर चला गया शहर......
*कोटा
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