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कविता से रिश्ता जोड़ें



✍️डॉ. दिलीप धींग


मेरी स्मृति शेष माता श्राविकारत्न उमरावदेवी धींग आरंभ से ही अच्छा गाती थीं उन्हें सैकड़ों गीत, भजन, स्तुतियाँ और लावणियाँ कण्ठस्थ थीं। गाँव की तत्कालीन मर्यादाओं तथा कुल परम्पराओं का सम्मान करती हुई वे धर्म-सभाओं व सामाजिक उत्सवों में अपनी प्रस्तुतियों से सभासदों को मुग्ध कर देती थीं। घर पर सामायिक प्रतिक्रमण के दौरान उनके द्वारा गाये जाने वाले गीत मुझे आनन्द और प्रेरणा प्रदान करते थे माँ की मंगल-प्रेरणा से मैं सभाओं में बोलना सीखा। माँ के सान्निध्य में ही मेरी सृजन-यात्रा शुरू हुई। स्मृति शेष पिता कन्हैयालालजी के स्वाध्याय-प्रेम ने मुझे हमेशा प्रेरित किया। मेरी रचनाएँ वे बहुत रुचि से पढ़ते और पढ़कर दूसरों को सुनाते थे। अक्टूबर–2004 में उनकी अचानक दिवंगति के कुछ दिनों बाद जब उनका बटुआ देखा तो उसमें भी किसी पत्रिका में प्रकाशित मेरी रचना की कतरन सहेजी हुई मिली थी


मैं जब प्राथमिक शाला में था, तब कोई कविता याद करके विद्यालय की शनिवारीय सभा में बोला था। उन्हीं दिनों जैन संतों की प्रवचन सभाओं में बोलना भी प्रारंभ कर दिया था1980 में मैंने पाँचवीं कक्षा उत्तीर्ण कीगाँव बम्बोरा के ही उच्च माध्यमिक विद्यालय में मैंने कक्षा छह के लिए प्रवेश लिया। वर्ष के दोनों राष्ट्रीय पर्वो (स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस) पर विद्यालय-प्रांगण में पूरे गाँव और गाँव के अन्य विद्यालयों का मुख्य कार्यक्रम होता था। मैं कक्षा छह से ही दोनों राष्ट्रीय उत्सवों में प्रतिवर्ष कार्यक्रम देता था।


बात कक्षा आठ की है। सन् 1983 के गणतंत्र दिवस समारोह में मुझे गीत या कविता प्रस्तुत करनी थी। घर और विद्यालय के पुस्तकालय से मैं मेरे बोलने योग्य सामग्री नहीं जुटा पाया 26 जनवरी का दिन निकट आ रहा था। मुझे उपाय सूझा कि क्यों नहीं मैं स्वयं ही कोई रचना लिख डालूँ? 23 जनवरी (सुभाष जयंती) को रातभर मेहनत करके पहली बार मैंने एक गीत और एक मुक्तक लिखा। स्वरचित काव्य प्रस्तुति पर हुई सराहना पर मैं प्रसन्न था उसके बाद विद्यालय की सभी कक्षाओं के सभी कार्यक्रमों में मैंने स्वरचित रचनाएँ ही सुनाईं।


धर्म और समाज की सभाओं में भी मैं स्वरचित कविताओं का पाठ ही किया करता था अनेक जिज्ञास मझसे रचनाएँ माँगते। मैं उन्हें सहर्ष रचनाएँ देता। एक बार मेरे मन में आया कि रचनाएँ दे देने से कॉमन हो जाती हैमेरी रचनाएँ प्रस्तुत करके दूसरे शाबाशी पाते हैं। मैं रचनाएँ दूं या नहीं दूं, इस दुविधा का निवारण मेरी उदारमना माँ ने किया। उन्होंने कहा कि ज्ञान भी बाँटने से बढ़ता है। यह माँ का मंगल आशीर्वाद है कि मैं नित नई रचनाएँ बनाने और सुनाने लगा। किसी के चाहने पर सहर्ष उसे रचना उपलब्ध करवाता था। पत्र रचनाओं के प्रकाशित होने पर तो वे सहज सबके लिए उपलब्ध हो ही जाती थीं।


सन् 1987 की शुरूआत से मैंने रचनाएँ प्रकाशनार्थ भेजना आरम्भ कर दीं। उसी वर्ष में एक-दो पत्र-पत्रिकाओं में जब रचनाएँ प्रकाशित हुई तो मेरा मन मयूर नाच उठा था। बाल-साहित्य पर केन्द्रित मासिक 'नूतन जैन पत्रिका' (लुधियाना) में मैंने लगभग एक दशक तक निरन्तर लिखाउसके सम्पादक गजेन्द्रपाल छाबड़ा ने एक बार पत्र में लिखा था "रचनाओं का चयन हम जरूर करते हैं, परन्तु आपकी रचनाओं का नहीं। आपकी प्रत्येक रचना स्वीकृति वाली फाइल में हम संभाल कर रखते हैं। कोई भी एक जो हाथ लग जाय, उसे प्रकाशित कर देते हैं। आपकी सभी रचनाएँ प्रकाशन योग्य हैं।"


'तीर्थंकर' और 'शाकाहार क्रांति के संपादक डॉ. नेमीचंद जैन पत्र लिखकर मेरी रचनाओं पर समीक्षात्मक टिप्पणियाँ भी भेजते थे। 'जिनवाणी' के पूर्व संपादक डॉ. नरेन्द्र भानावत और वर्तमान संपादक डॉ. धर्मचंद जैन जैसे विद्वानों ने भी मेरी रचनाधर्मिता को सराहा। मेरी काव्य-साधना पर मधुर व्याख्यानी गौतममुनि जैसे काव्य-मनीषी संतों और न्यायाधिपति जसराज चौपड़ा जैसे प्रबुद्ध समाजवेत्ताओं के आशीर्वचन भी मिले, जो मुझे निरन्तर श्रेष्ठतर लिखने की प्रेरणा देते रहे।


आरंभिक वर्षों में मेरी रचनाएँ 'श्रमणोपासक', 'सम्यग्दर्शन', 'जैन प्रकाश', 'श्री अमर भारती', 'शाश्वत धर्म', 'अणुव्रत' आदि अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ करती थीं। सृजन और प्रकाशन का यह क्रम निरन्तर विस्तार पाता रहा। मैं पद्य के साथ गद्य भी लिखने लगा था। अहिंसक जीवन मूल्यों से अनुप्राणित रचनाएँ सभी प्रकार के पाठक वर्ग तक पहुँचें, इस भावना से विभिन्न श्रेणियों की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ भेजा करता था। फलतः देश की सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं के लाखों पाठकों से लेखकीय संवाद बना।


हिन्दी साहित्य की पत्र-पत्रिकाओं में जैन दर्शन और अहिंसक जीवन मूल्यों से सम्बन्धित रचनाओं का अभाव भी है और वहाँ इस प्रकार के साहित्य की उपेक्षा भी है। इस अभाव और उपेक्षा को दूर करने का मैंने कुछ प्रयास किया। लेकिन बहुत कुछ करना शेष है। हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में जैन साहित्य तथा जैन साहित्यकारों के प्रचुर योगदान का यथेष्ठ मूल्यांकन होना चाहिये।


समाज में मूल्यपरक और रचनात्मक मौलिक लेखन का अभाव मुझे हमेशा महसूस हुआमेरी सामर्थ्य के अनुसार इस अभाव को गद्य और पद्य दोनों माध्यमों से पूरा करने का मेरा प्रयास रहा। परन्तु अभावों से भरी जिन्दगी में मेरे प्रयासों ने अगणित उपहास और परिहास झेलेआज समाज में रचना और रचनाकार हाशिये पर नजर आते हैंइस बीच कुछ सौदागर नवसृजन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। प्रोत्साहन पर अनावश्यक पूर्वाग्रह हावी है


कविता (साहित्य) के साथ-साथ मुझे अध्यात्म और विज्ञान से लगाव रहा। साहित्यकार निर्मल वर्मा ने एक जगह लिखा- ''साहित्य हमें मुक्ति नहीं दिलाता, वह हमें बन्दी होने का अहसास कराता है।" मेरा मानना है कि अध्यात्म हमें मुक्ति भी दिलाता है और विज्ञान हमारे मुक्ति-पथ को सुगम बनाता है। परन्तु, समुचित पाथेय के अभाव में मेरे लिए यह पथ सुगम नहीं रहा, अगणित परेशानियों से भरा रहा। जीवन की तरुणाई का सुदीर्घ कालखण्ड शुष्क वर्षाकाल की तरह व्यतीत हो गया।


मेरे आर्तध्यान को कम करने में धर्मध्यान का बड़ा संबल रहा। यह संबल मैंने मेरी कष्ट-सहिष्णु माँ उमरावदेवी से पाया। माँ ने धर्मगीत गाते-गुनगुनाते संकटों की अनेक घाटियाँ पार कर लींमाँ घट्टी फेरती हुई भी धर्मगीत गाती थीं। मैं उनकी गोद में या उनके पास सो जाया करता थाभोर की नीरवता, घर-घरै घट्टी का राग और माँ की लयबद्ध आवाज में प्रेरणाभरे गीतों की वह सरगम जीवन के सारे गम हर लेती थी। श्रम, श्रद्धा और सुर से अनुप्राणित वैसा 'लयबद्ध सक्रिय अध्यात्म' अब दुर्लभ हो गया है। कविता इसे पुनः सुलभ बना सकती है, बशर्ते आदमी अच्छी कविता से आत्मीय रिश्ता जोड़े।


मेरे लिए यह पुनीत स्मृति बहुत मार्मिक है कि मेरे कुछ गीतों को मेरी माँ भी गाया करती थींमेरे लिए यह विशेष प्रमोदजन्य है कि देशभर में अनेक बालक-बालिकाओं और काव्यप्रेमियों ने कई रचनाओं को ससंदर्भ सभा में प्रस्तुत करके प्रशंसा और पुरस्कार पाये हैं। आत्मज प्रणत को मेरी लगभग दो दर्जन कविताएँ कण्ठस्थ हैंउसने कई सभाओं में इन कविताओं को प्रस्तुत करके शुभाशीष और सम्मान पाये हैं। आचार्य हस्ती करुणा वक्ता पुरस्कार से सम्मानित चेन्नई की स्वाध्यायी विजया कोटेचा ने मार्च-2013 में मेरे कुछ चयनित गीतों-कविताओं की एक सीडी भी जारी की, जो नैतिक पाठशालाओं और संस्कार केन्द्रों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई।


कवि सम्मेलनों और काव्य गोष्ठियों में काव्यपाठ करके मैं भी माहौल को नया रंग देता रहा हूँ। अच्छी कविता मानव मन में सद्गुणों का सृजन और संरक्षण करती है। इससे मानव कई दुर्गुणों और परेशानियों से बच जाता है। कविता विपथ पर चलने से रोक सकती है तथा विपथगामी को सन्मार्ग पर ला सकती हैकविता का सृजन साधना है तो कविता का पाठ या गायन भी साधना हैरुचिवान श्रोताओं द्वारा कविता का श्रवण आनन्द और प्रेरणा का संचार करने वाला होता है‘वज्जालग्ग' की प्राकृत गाथा में ठीक ही कहा गया है


दुक्खं कीरइ कव्वं, कव्वम्मि कए पउंजणा दुक्खं।


संते पउंजमाणे, सोयारा दुल्लहा हुति।


काव्य बड़ी कठिनाई से रचा जाता है। काव्य के रच जाने पर उसका पाठ बड़ी कठिनाई से किया जाता हैपाठ करने वाले व्यक्ति के होने पर श्रोता दुर्लभ होते हैं। श्रेष्ठ श्रोता के साथ आजकल सजग पाठक भी दुर्लभ होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में कुछ महानुभाव और संस्थान स्वाध्याय और सम्यग्ज्ञान की अलख जगाए हुए हैं। वर्तमान में सम्यग्ज्ञान की अलख जगाने वाले व्यक्तियों, संस्थानों, पत्र-पत्रिकाओं, कार्यक्रमों और साहित्य को प्रोत्साहित-पोषित करके संस्कार व संस्कृति को बचाना बेहद जरूरी है।


*चेन्नई


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