✍️कारुलाल जमड़ा
इस बार
"राखी" पर ग़र आ पायीं
तो तुम्हें ले जाऊंगा उसी गांव
जहाँ हम पैदा हुए,खडे़ हुए और बडे़ हुए
तुम्हें दिखाऊंगा
वे गलियाँ,वे नदियाँ,वे घाटियाँ
जहाँ हम चारों हँसते-खेलते,रोते-गाते
करते थे गलबहियाँ
हम महसूस करेंगे
नये घर की पक्की दीवारों में भी
वही सौंधी महक,वही प्राणवायु
जो थी पुराने घर की मिट्टी,ईंटों,बल्लियों में
एक चक्कर लगायेंगे गांव का
जैसे लगाते थे दौड़ते-भागते
पन्द्रह अगस्त,छब्बीस जनवरी के दिन,
वहाँ हमें सुनाई देगी नारों की गूंज भी
और कुछ देर बैठेंगे
हमारी रोजड़(नदी)की गोद में भी
किसी चट्टान को छुयेंगे जी भर कर
उससे कुछ बाते करेंगे
आओ बहनों!
कि इस बार राखी पर
जी भर कर जीयेंगे बचपन
कि सहलायेंगे मातृभूमि का कण-कण
आओ!क्योंकि आज हम कहीं भी हों रहते
पर भीतर के अहसास कभी मरा नहीं करते
*जावरा (म.प्र)
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