✍️व्यग्र पाण्डे
बरसो-बरसो मेघा बरसो,
हो गये वर्षों बिन बरसे
तपती धरती आहें भरती, हर पल बूँदों को तरसे ।
नग्न गिरि, बीमार हैं नदियां
कूप पियासे आजा छलिया
झरने मूक सिसकियाँ भरते
भर दे अब प्रकृति की डलिया
कर ले नेक काम निज कर से
बरसो-बरसो मेघा बरसो, हो गये वर्षों बिन बरसे ।
मेघ घटाओं के संग आना
और चपल बिजली चमकाना
करना तरबतर सृष्टि को
वृष्टि तू ऐसी बरसाना
जिससे जन-जन का मन हरषे
बरसो-बरसो, मेघा बरसो, हो गये वर्षों बिन बरसे ।
रीत चला सावन मनभावन
तुम ना बरसे मेरे आंगन
मैं विरहन वाट जोहती
संगत तोहरी बिगड़े साजन
मनवा कब से मोरा तरसे
बरसो-बरसो मेघा बरसो, हो गये वर्षों बिन बरसे ।
*गंगापुर सिटी, स.मा.(राज.)
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