✍️रविकान्त सनाढ्य
वाह, लला, गज़ब के आप बने रसिया हो,
रासलीलाधारी तुम प्रेम के गुमान हो ।
गीता के प्रदाता तुम, योगेश्वर त्राता महा,
बड़े-बड़े ज्ञानियों के तुम अभिमान हो ।
अखिल ब्रह्माण्ड तव पलकों में पल रहा,
तत्त्वज्ञानियों के लिये तुम ही प्रमान हो ।
सांख्य, योग, न्याय, वेशैषिक औ वेदान्त संग,
मीमांसा न ढूंढ सकै, गोपियों के प्रान हो ।।
नवल -धवल वेस आपको तो मेरे प्रभु ,
एकटक ही निहारूँ, मेरे धन भाग हैं l
सब परिहरि दीनेे, बिसरि गये हैं स्याम,
तेरी प्रीत प्रबल, विगत सब राग हैं l
तल पर रह गयो, कृपा हुई पाप- पंक,
खिले हैं कमल-पुष्प, प्रेम के तड़ाग हैं l
कहै रविकंत,भरि लेना निज अंक मो को,
गहिलेना हाथ,लागी तुझसे ही लाग है ll
तबीयत खुश मेरी हो गई स्वरूप देख,
गगन -झलक धीरता की छवि पाई है l
सागर की गहराई, चेहरे पे तरुनाई ,
स्थितप्रज्ञता की प्रभु अखन दुहाई है l
देखने में ऐसो लगे, छैला बन्यो बेख़बर,
तू दयाल ब्रह्म है, स्वभाव करुनाई है
कहै रविकंत, पटखनी देदे बलाओं को
मंगल को मूल तू ही तेरी सरनाई है ।।
*भीलवाड़ा
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