*राजेन्द्र श्रीवास्तव
बंजारों ने रुक कर मानो
डाले डेरे हैं
काले बादल आसमान पर
आज घनेरे हैं
बंजारों ने रुक कर मानो
डाले डेरे हैं
साथ हवा के उड़-उड़ कर यह
आते-जाते हैं
टकराते हैं कभी परस्पर
फिर बतियाते हैं
अन्जानों जैसे आपस में
फिर मुँह फेरे हैं
नाच रहीं हैं चमक-दमक कर
चपला-नर्तकियाँ
बदल रहें हैं मेघ निरंतर
नभ में आकृतियाँ
नीलगगन पर श्वेत-श्याम
चलचित्र उकेरे हैं
कहीं विखेर रहीं बूँदें कुछ
छटा इंद्रधनुषी
बदरी, सूख रही धरती पर
कहीं खूब बरसी।
जल की बूँदों के, जल पर ही-
वर्तुल घेरे हैं.
*विदिशा म.प्र
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