✍️डॉ.प्रदीप शिंदे
खुद रूह को सवाल करे मेरा ही ज़मीर
ख्याल से गए जों मंजर बनें क्यूं मंजिल
ख्याल से गए जों मंजर बनें क्यूं मंजिल
उस शहर से हमेशा अलविदा इरादा
दुबारा वापस मन क्यूं भटकता मुड़ा
दिल बीते लम्हों के दास्तान की दुकान
आज वही हो गया जैसा पुराना मक़ान
चांद तारें नज़ारे का गांव आंखों बसाया
आज फलक टीवी बना गांव बदल गया
हंसाते खिलखिलाते महकाया वो पल
ज़माने के होड़ ने छिन लिया सुख चैन
कश्ती में साथ सफ़र नदी से मिलें दिल
आज गांव में व्यापार नहीं दिलों में मेल
चंचल मन पंछी गाव घोंसला बनाया
इमली आम बेर पेड़ दिल बहार आया
चार दिनों का खेल पिंजड़े वापस मन
नीरस शहरी जीवन यंत्र बना मानव
जीवन घड़ी के काटें पुतला बना मानव
बेजान गांव शहरों से मन दूर चलें
*सातारा, महाराष्ट्र.
अपने विचार/रचना आप भी हमें मेल कर सकते है- shabdpravah.ujjain@gmail.com पर।
साहित्य, कला, संस्कृति और समाज से जुड़ी लेख/रचनाएँ/समाचार अब नये वेब पोर्टल शाश्वत सृजन पर देखे- http://shashwatsrijan.com
यूटूयुब चैनल देखें और सब्सक्राइब करे- https://www.youtube.com/channel/UCpRyX9VM7WEY39QytlBjZiw
0 टिप्पणियाँ