✍️डॉ रमेश कटारिया पारस
जिन्दगी दाँव पर लगाते है
दोष तक़दीर का बताते हैं
रोक पाओ तो रोक लो आँसू
हम तुम्हे हाल ए दिल सुनाते हैं
तोड़ देते हैं अतिक्रमण कह कर
लोग किस तरह से घर बनाते हैं
शाम होती है रोज़ ठेके पर
जाम से जाम खनखनाते हैं
जिन्दगी रोते रोते गुजरी है
लोग क्यों कुण्डली मिलाते हैं
हमारी तिश्नगी का हाल मत पूछो
प्यासे आये थे प्यासे जाते हैं
मयकदा उनका ख़ास है ऐसे
वो फ़कत आँखों से पिलाते हैं
दिल को रख दूँगा उनके कदमों में
देखें कैसे कुचल के जाते हैं
दिल तो काँच से भी नाज़ुक है पारस
आप क्यूँ बिजलियाँ गिराते हैं
*ग्वालियर
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