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दादी-नानी की सीख



*सुजाता भट्टाचार्य

आज इस कोरोना महामारी में मुझे अपनी दादी और नानी बहुत याद आती हैं।उन दोनों ने ही हमारे जीवन को अनुशासित किया।भारत में स्त्रियों की स्थिति वैसे भी शोचनीय थी।उस पर विधवा स्त्रियों की तो अत्यंत दयनीय।मेरी दादी-नानी भी कम उम्र में अपने पतियों को खो चुकी थीं,अतएव उन्हें जीवन में अनेक प्रतिबंधिताओ का सामना करना पड़ता था। उनके पास यही ‌कारण था कि वे हम बच्चों को भी अनुशासन का पाठ पढ़ाती थी। सुबह-सुबह जल्दी उठकर पूजा के लिए फूल चुनना हमारा पहला काम था।यह काम तो एक बहाना था,दरअसल यह सुबह की सैर और प्रकृति से पहचान कराने का सरल तरीका था।
‌उसके बाद स्नान करने के बाद ही सुबह का नाश्ता मिलता।उस समय इन बातों का महत्व मालूम नहीं था। हां,वह पीढ़ी आज्ञाकारी होने के कारण बिना कुछ पूछे बड़ों की आज्ञा मान लेती थी। दिन भर उनके साथ घर के छोटे-मोटे काम में हाथ बंटाते और दोपहर के समय कहानियों की किताब पढ़ते।इतना ही नहीं नानी की सुंदर-सुंदर कढ़ाई की हुई चीजों को देखकर, स्वयं भी कढ़ाई, चित्रकारी और न जाने क्या-क्या सीखते।
‌दिन में जितनी बार शौचालय जाते उतनी बार वो हमारा हाथ -मुंह धुलवाती थीं। इतना ही नहीं जब भी भोजन के लिए बैठते,उनका प्रश्न होता,"अच्छी तरह हाथ धोए।"दिन में न जाने कितनी बार हमारे हाथ-पैर धुलवाती।शाम को जब हम खेलने जाते,लौटने पर 'बाहर के कपड़े'कहकर हमारे कपड़े बदलवातीं और फिर अच्छी तरह हाथ-पैर धुलवाकर ही धर में घुसने की अनुमति देतीं। साफ़ सफाई का जितना ध्यान उस समय वे दोनो रखतीं थीं,और हम बच्चों से भी सफाई का पालन करवाती थी।उनकी वही शिक्षा बाद में हमारी आदत बन गई।
‌आज जब इस कोरोना काल में यह सुनती हूं कि बार-बार हाथ धोए,बाहर के कपड़े घर में मत पहनो, जूते-चप्पल भी धोओ,बाहर का भोजन मत खाओ। मुझे अटपटा नहीं लगता है क्योंकि ये सब संस्कार रूप  में हमारी दादी-नानी ने हमें बचपन में सिखाया था।बस लगता है,वो सीधे-सादे हमारे पूर्वज जिन्हें हम अनपढ-गवार समझकर उनके दिखाए हुए रास्तों पर चलना अपनी शान के खिलाफ समझते थे,वही
‌बातें आज इस वायरस के डर से मान रहे हैं।विगत कुछ महीनों में हम सबको बार-बार हाथ धोने की आदत हो गई है। इतना ही नहीं अपने सभी घरेलू कार्य स्वयं कर रहें हैं, जिसे छोटा काम समझते थे वहीं घरेलू काम खुश होकर कर रहें हैं।जो बच्चे बाहर का खाना खाएं बिना नहीं रह सकते थे,वे आज घर की रसोई में नित नए पकवान बनाना सीख रहे हैं। हमारी दादी-नानी ने भी तो हमें कभी बाहर का खाना नहीं खिलाया।सदा घर पर बने पकवान हमारे लिए परोसें। मजेदार बात यह है कि जो लोग पहले पूरे घर में जूते-चप्पल पहन कर घूमते थे,वे दूसरों को ऐसा न करने की शिक्षा देते हैं। किसी ने सच ही कहा है,'ये दुनिया गोल है'।हम सब फिर से अपने पूर्वजों के बताए हुए रास्ते पर चल पड़े हैं। मैं अपनी दादी और नानी को नमन करते हुए इस देश की महान संस्कृति को भी कोटि-कोटि नमन करती हूं।
*‌नई दिल्ली

 


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