✍️संजय वर्मा 'दृष्टि'
इतनी चुप क्यों हो
जैसे रीति नदियाँ
तुम्हारी खिलखिलाहट
होती थी कभी
झरनों जैसी कलकल।
रूठना तो कोई तुमसे सीखे
जैसे नदियाँ रूठती बादलों से
मै बादल तुम बनी
स्वप्न में नदी सी
सूरज की किरणें झांक रही
बादलों के पर्दे से
संग इंद्रधनुष का तोहफा लिए
सात रंगों में खिलकर
मृगतृष्णा दिखाता नदियों को।
नदियाँ सूखी रहे
तो नदियाँ कहाँ से
बिन पानी से
भला उसकी क्या पहचान
जैसे तुम औऱ मै हूँ।
रीति नदियों में
पानी भरने को बेताब बादल
सौतन हवाओं से होता
परेशान।
नदी से प्रेम है तो
बरसेगा जरूर
नही बरसेगा तो
नदियां कहाँ से
कलकल के गीत गुनगुनाए ।
औऱ बादल सौतन हवाओं के
चक्कर मे
फिजूल गर्जन के गीत क्यों गाए।
जो गरजते क्या
वो बरसते नही
यदि प्यार सच्चा हो तो
बरसते जरूर।
*मनावर(धार)
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