*भूपेन्द्र सिंह 'होश लखनवी'
क्यूँ न ये मानें यहाँ है रायगाँ कुछ भी नहीं,
गो कि ये सब जानते हैं जाविदाँ कुछ भी नहीं.
अब ज़रूरी है ग़ुरूर आये न इंसानों में ये,
है जो क़ुदरत ने बनाया ये जहां कुछ भी नहीं,
एक मुफ़लिस की नज़र से सोच कर देखें जो हम,
भूख के आगे हैं ये दीनो-इमां कुछ भी नहीं.
काम उसके ही इशारे पर है करती काइनात,
हो न उसका इज़्न तो मिलता यहाँ कुछ भी नहीं.
जो सख़ी हैं फ़िक़्र का उनका अलग अंदाज़ है,
उनकी नज़रों में ज़रो-सीमो-मकां कुछ भी नहीं.
है बग़ावत सर उठाती जब कभी मज़्लूम की,
उस जुनूं के सामने ये हुक़्मरां कुछ भी नहीं.
"होश" ये तौफ़ीक़ दे हमको ख़ुदा हम जान लें,
उसकी रहमत के बिना सारा जहां कुछ भी नहीं.
*लखनऊ उ प्र
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