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मेरे गाँव के आम के बगीचे का उजड़ना



*कारुलाल जमडा़

यूँ तो 

मेरे कुछ नहीं लगता था तू!

मेरे क्या,

किसी के भी नहीं ?

 

जिसकी था तू जायदाद

वे भी तो उतना ही वास्ता रखते थे

जितना एक साहुकार 

रखता है अपने लेनदार से! 

 

पर कैसै?

कैसे भूला जा सकता है 

कि हमारी सुबह ,दोपहर और शाम कटती 

वहीं तेरी गोद में?

 

हे आम्रकुंज !

तेरी छांव तले ही तो

देखा करते थे मधुर सपने

कपिल और गावस्कर बनने के,

 

तेरी बात ही थी निराली

जब तेरे परिजन

स्वयं बन जाते थे फिल्डर

हमारी क्रिकेट टीम के! 

 

तूने कहाँ जाने दिया बहुत दूर?

जब "इन्दर राजा" को मनाने 

निकल पड़ते थे एक साथ

"क्या राजा और क्या  रंक"!

 

सबकोे दिया

एक जैसा दुलार,निर्भेद सुरक्षा,

"पथिक" तो नया जीवन वहीं पाते

 तेरी छाँव तले! 

 

तेरे उजड़ने के साथ ही

उजड़ गई हैं नई कौंपले

उजड़ गये हैं तरुण सपने

और उजड़ गये हैं भीतर से हम भी! 

 

काश! 

तेरी गोद,तेरे आँचल को हम न उजाड़ते

अपनी जि़न्दगी को खु़द हम

अपने हाथों न बिगाड़ते!

*जावरा(रतलाम)

 


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