*डॉ. भवानी प्रधान
गरीब हूँ
बदनसीब हूँ
मजबूर भी
मैं मजदूर हूँ
भूख से ब्याकुल
तपती दोपहरी
पैदल चलते
डरे सहमे
पैरों में छाले
निष्ठुर है
कोरोना काल
हाल है बेहाल
हाय ये कैसी
विपदा आई
दुःखों की अंतहीन
दासता लाई
महामारी का
भयानक प्रहार
थम गई दुनियां सारी
पर हम न थके
मंजिल तक पहुँचने
की चाहत
निरंतर आगे
बढ़ते रहे
न दिन का पता
न रात का चैन
अँधेरी निशा छाई
कैसी विवशता आई
रोते बिलखते
चलते जाते
एक -एक निवाले को
पड़ गए लाले
*डगनिया रायपुर (छ. ग )
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