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मानव जीवन की मुस्कान प्रकृति में ही खिलती है 



साहित्य और प्रकृति का गहरा रिश्ता रहा है। जितना हम सदाबहार प्रकृति में रहते हैं ,उतना ही जीवन भी खिलाखिला रहता है।जब हम लालच में प्रकृति का दोहन करते हैं, तो प्रकृति का क्रोध भी अपने गुस्सैल रंग दिखाता है। साहित्य में हजारों वर्षों से प्रकृति का चित्रण होता रहा है ।पर आधुनिक हिंदी कवियों ने भारत माता के प्राकृतिक भूगोल को ही माँ का सजीव रूप दे दिया। छायावादी कविता में प्रकृति के रेशे रेशे में परमात्मा की छाया  दिखाई पड़ती है ।पर अब गंगा जैसी निर्मल नदियों की जलधारा उद्योगों के कचरे के साथ गंदगी का प्रवाह बन गई है ,तो नए कवियों की नजर में वह तेजाब बहाने वाली बूढ़ी गंगा बन गई है ।आज की हिंदी कविता ने बढ़ते हुए विश्वव्यापी प्रदूषण के वास्तविक चित्र पेश किए हैं। प्रकृति और विकास के बीच जितना संतुलन होगा, मानव जीवन भी उतना ही रंगीन होगा। यदि हम प्रकृति के रंगों में जीना सीखें ,तो करोना जैसी आपदाओं से सदा दूर रहेंगे।
ये विचार साहित्यकार बी.एल. आच्छा ने बंगलुरु के शेषाद्रिपुरम् महाविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय वेबीनार में व्यक्त किए। इस संगोष्ठी में लंदन से तेजेंद्र शर्मा, नेपाल से डॉ.अब्दुल मोमिन खान,कनाडा से प्रो. सरण घई तथा  गुरुग्राम हरियाणा से कुलपति मार्डॉकंडेय आहूजा,कामराज सिंधु , डॉ पुनीत बिसारिया, डॉ विजेंद्रप्रताप सिंह आदि ने वक्तव्य दिए। अनेक प्रतिभागियों ने शोधपत्र प्रस्तुत किए। संचालन एवं आभार प्रदर्शन विभागाध्यक्ष डॉ उर्मिला पोरवाल ने किया।


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