*ललित गर्ग
कोरोना महामारी ने भारतीय चिकित्सा क्षेत्र की खामियों की पोल खोल दी है। भले केन्द्र सरकार की जागरूकता एवं जिजीविषा ने जनजीवन में आशा का संचार किया हो, लेकिन इस महाव्याधि से लड़ने में चिकित्सा सुविधा नाकाफी रही है। राजधानी दिल्ली सहित महानगरों, नगरों एवं गांवों में चिकित्सा की चरमराई स्थितियों ने निराश किया है। चिकित्सक, अस्पताल, दवाई, संसाधन इत्यादि से जुड़ी कमियां एक-एक कर सामने आ रही हैं। कोरोना महासंकट के दौरान डॉक्टरों और सुविधाओं की कमी आए दिन सामने आती रही है, कोरोना से बड़ा खतरा कोरोना से लड़ती चिकित्सा प्रक्रिया की खामियों का है। इस स्थिति ने कोरोना पीड़ितों को दोहरे घाव दिये हंै, निराश किया है। हमारी चिकित्सा क्षेत्र की खामियां आज की नहीं, बल्कि अतीत से चली आ रही विसंगतियों एवं विषमताओं का परिणाम है, जिसका समाधान आत्मनिर्भर एवं सशक्त भारत की प्राथमिकता होनी ही चाहिए। भारत में सरकारी अस्पतालों को निजी अस्पतालों की तुलना में अधिक सक्षम बनाने की जरूरत है, तभी हम वास्तविक रूप में चिकित्सा की खामियों का वास्तविक समाधान पा सकेंगे।
मानव निर्मित कारणों से जो कोरोना महासंकट दुनिया के सामने खड़ा है उसका समाधान भी हमंे ही खोजना है, विशेषतः चिकित्सा जगत को इसमें तत्परता बरतने की अपेक्षा है। ऐसा हुआ भी है और हमारे चिकित्साकर्मियों ने अपने जान की परवाह न करते हुए कोरोना पीड़िता का इलाज किया गया है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डाॅ. हर्षवर्द्धन ने स्वयं चिकित्सा अभियान का प्रभावी नेतृत्व करते हुए न केवल कोरोना संक्रमण को फैलने से रोका है बल्कि पीड़ितों को समूचा उपचार भी प्रदत्त करने के समुचित उपक्रम किये हैं। प्रश्न केन्द्र सरकार एवं केन्द्रीय स्वास्थ्यमंत्री की कोरोना मुक्ति की योजनाओं को लेकर नहीं है। प्रश्न है भारत की चिकित्सा प्रक्रिया की खामियों का, कोरोना के दौरान इस अंधेरे का अहसास तीव्रता से हुआ है।
देश में कोरोना के दौरान सरकारी अस्पतालों में जहां चिकित्सा सुविधाओं एवं दक्ष डाॅक्टरों का अभाव देखने को मिला है, वहीं निजी अस्पतालों में आज के भगवान रूपी डॉक्टर एवं अस्पताल मालिक मात्र अपने पेशा के दौरान वसूली व लूटपाट ही करते हुए नजर आए हैं। उनके लिये मरीजों की ठीक तरीके से देखभाल कर इलाज करना प्राथमिकता नहीं होती, उन पर धन वसूलने का नशा इस कदर हावी होता है कि वह उन्हें सच्चा सेवक के स्थान पर शैतान बना देता है। केन्द्र सरकार कोरोना पीडित को बेहतर तरीके से इस असाध्य बीमारियों की चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिये प्रतिबद्ध है। निजी अस्पतालों पर कार्रवाई करना बेहद जरूरी है क्योंकि कोरोना के समय में अनेक अस्पतालों ने चिकित्सा-सेवा को मखौल बना दिया था। सरकार की जागरूकता एवं सख्त कार्रवाई से न केवल कोरोना पीड़ित व्यक्ति को चिकित्सा का वास्तविक लाभ मिल सकेगा, बल्कि चिकित्सा क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार एवं गड़बड़ियों को दूर किया जा सकेगा, जो शर्मनाक ही नहीं बल्कि डॉक्टरी पेशा के लिए बहुत ही घृणित है। इन अमानवीयता एवं घृणा की बढ़ती स्थितियों पर नियंत्रण एवं कोरोना महामारी को फैलने से रोकने की एक सार्थक पहल और दोषी अस्पतालों पर कठोर कार्रवाई जरूरी है।
भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रभावी चिकित्सा व्यवस्था स्थापित करना एक महत्वपूर्ण मिशन एवं विजन है, उन्होंने इसके लिये आयुष्मान भारत योजना लागू करते हुए हर व्यक्ति को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने का बीड़ा उठाया था। लेकिन सरकार के साथ-साथ इसके लिये आम व्यक्ति को भी जागरूक होना होगा। हम स्वर्ग को जमीन पर नहीं उतार सकते, पर बुराइयों से तो लड़ अवश्य सकते हैं, यह लोकभावना जागे, तभी भारत आयुष्मान बनेगा, तभी कोरोना को चिकित्सा स्तर पर परास्त करने में सफलता मिलेगी, और तभी चिकित्सा जगत में व्याप्त अनियमितताओं एवं धृणित आर्थिक दृष्टिकोणों पर नियंत्रण स्थापित होगा। डाॅक्टर का पेशा एक विशिष्ट पेशा है। एक डाॅक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है, इसलिये इसकी विशिष्टता और गरिमा बनाए रखी जानी चाहिए। एक कुशल चिकित्सक वह है जो न केवल रोग की सही तरह पहचान कर प्रभावी उपचार करें, बल्कि रोगी को जल्द ठीक होने का भरोसा भी दिलाए। रोगी की सबसे बड़ी आर्थिक चिन्ता को सरकार ने दूर करने की योजनाएं प्रस्तुत की है तो अस्पताल एवं डाॅक्टर गरीबों के निवालों को तो न छीने। राष्ट्रीय जीवन की कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं कि अगर उन्हें रोज नहीं संभाला जाए या रोज नया नहीं किया जाए तो वे खो जाती हैं। कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं जो अगर पुरानी हो जाएं तो सड़ जाती हैं। कुछ सम्पदाएं ऐसी हैं कि अगर आप आश्वस्त हो जाएं कि वे आपके हाथ में हैं तो आपके हाथ रिक्त हो जाते हैं। इन्हें स्वयँ जीकर ही जीवित रखा जाता है। डाॅक्टरों एवं अस्पतालों को नैतिक बनने की जिम्मेदारी निभानी ही होगी, तभी वे चिकित्सा के पेशे को शिखर दें पाएंगे, तभी कोरोना मुक्ति के वास्तविक उद्देश्यों को हासिल कर सकेंगे।
भारत में गांवों में चिकित्सा प्रक्रिया को प्रभावी एवं सशक्त बनाने की जरूरत है। इन दिनों एक रिपोर्ट खास चर्चा में है। यह रिपोर्ट बताती है कि भारत के गांवों में मेडिकल प्रैक्टिस करने वाले तीन में से दो के पास न तो यथोचित डिग्री है और न कोई विधिवत प्रशिक्षण। वे जरूरी ज्ञान के बिना ही लोगों की जान से खेल रहे हैं। यही कारण है कि हमारे गांवों में बीमारी और मृत्यु दर बहुत ज्यादा है। जाहिर है, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के अभाव के कारण ही निजी क्षेत्र में कथित डॉक्टरों का स्याह साम्राज्य फैल गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की 2016 की एक रिपोर्ट का भी खतरनाक तथ्य यह है कि इन कथित डॉक्टरों या झोलाछाप में से 31.4 प्रतिशत स्कूल से आगे नहीं पढ़े हैं। लोगों के बीच अशिक्षा व गरीबी का आलम ऐसा है कि वे हर इलाज के लिए गांव से शहर नहीं जा सकते। ऐसे में, वे गांवों में मौजूद झोलाछाप पर निर्भर होकर खतरा उठाते हैं।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी सामने आया है कि महज डिग्री होने से ही इलाज में महारत हासिल नहीं हो जाती। तमिलनाडु और कर्नाटक में जो अनौपचारिक चिकित्सा सेवक थे, उनकी योग्यता बिहार व उत्तर प्रदेश के अनेक प्रशिक्षित डॉक्टरों से भी बेहतर पाई गई। दक्षिण के राज्यों में चिकित्सा की अपेक्षाकृत ठीक स्थिति इसलिए भी है, क्योंकि वहां अनौपचारिक सेवक किसी औपचारिक डॉक्टर के पास वर्षों तक काम करके सीखते हैं, जबकि उत्तर के राज्यों में थोड़ी-बहुत जानकारी होते ही मरीजों की सेहत से खिलवाड़ शुरू हो जाता है। केरल एक बेहतर अपवाद है, जहां शिक्षा व जागरूकता ज्यादा होने के कारण झोलाछाप डॉक्टरों की संख्या समय के साथ कम होती गई है। इन विडम्बनापूर्ण स्थितियों एवं कोरोना महामारी के प्रकोप ने ग्रामीण इलाकों में पारंगत डॉक्टरों की उपलब्धता बढ़ाने के तमाम उपाय युद्ध स्तर पर किये जाने की आवश्यकता को उजागर किया है। नए डॉक्टरों को कुछ वर्ष गांवों में सेवा के लिए बाध्य करना चाहिए। ऐसे उपाय कुछ राज्यों ने कर रखे हैं, इसकी कड़ाई से पालना जरूरी है। ऐसे प्रावधान करने चाहिए कि वे कहीं और सेवा या नौकरी में रहते हुए भी महीने या साल में कुछ-कुछ दिन अपने गांव जाकर या किसी भी ग्रामीण क्षेत्र का चयन कर अपनी सेवाएं दे। हमारे गांव अच्छे डॉक्टरों के लिए तरस रहे हैं, उनके इंतजार को जल्द से जल्द खत्म करना सरकार ही नहीं, बल्कि चिकित्सा संगठनों-संस्थानों का भी कर्तव्य है।
एक लोकतांत्रिक देश में लोगों के इलाज की जिम्मेदारी सरकार की होती है और वह इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। सरकारी इलाज की सबसे अच्छी व्यवस्था ऑस्ट्रेलिया की मानी जाती है। वहां अस्पताल में उपलब्ध कुल बेड में से 80 फीसदी सरकारी अस्पतालों में हैं। यही नहीं, सरकारी अस्पताल प्राइवेट की तुलना में बेहतर इलाज मुहैया कराते हैं। ऑस्ट्रेलिया ने आइएएस की तरह हेल्थकेयर का अलग कैडर बना रखा है। वहां अमीर व्यक्ति भी बीमार होता है तो सबसे पहले सरकारी अस्पताल में जाता है न कि प्राइवेट अस्पताल में। ऐसा ही कुछ मलेशिया में और हांगकांग में है। इसके विपरीत भारत आबादी के हिसाब से अस्पतालों में बेड बढ़ाने एवं चिकित्सा सेवाओं को प्रभावी बनाने में बुरी तरह विफल रहा। अब सरकार का ध्यान इस ओर गया है,जब कि उसे परिणाम आये, तब तक हेल्थकेयर के मोर्चे पर सरकारी और निजी क्षेत्र की जुगलबंदी ही देश में कोरोना पीड़ितों का कारगर इलाज कर सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार है)
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