*डां कैलाश गुप्ता सुमन
सुरसा सी बढ़ती मँहगाई।
कैसे घर बाजे शहनाई।।
अनुबंधों पर मिलें नौकरी।
मजदूरी मिलती चौथाई।।
पीले हाथ लली के करने।
किडनी तक हो गई पराई।।
पैर ढकें तो शीश उघारा।
ओढ़ न पाये फटी रजाई।।
कैसे घर चूल्हा सुलगेगा ।
पास नहीं है आना पाई।।
देख देखकर चल चित्रों को।
राह भटकती है तरुणाई।।
जिसने नहीं गरीबी देखी।
बो क्या समझेगा मँहगाई।।
*मुरैना मध्यप्रदेश
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