*हमीद कानपुरी
हर क़दम पर इश्क़ की देती मुझे दावत भी थी।
प्यार करने का उसे पर इक सबब सूरत भी थी।
अब ज़रा फुर्सत नहीं तो किस तरह से हो निबाह,
तब नहीं आया मुझे जब ढेर सी फुर्सत भी थी।
मंज़िलों की थी तलब यूँ साथ हम चलते रहे,
हमको उससे हर क़दम पर यूँ बहुत ज़हमत भी थी।
इश्क़ ने मुझको दिया था ज़ख़्म गहरा इक मगर,
दर्द सहने की मुझे बचपन से कुछ आदत भी थी।
कल तलक उससे बहुत दिल को शिकायत थी हमीद,
ये मगर सच है कि शामिल थोड़ी सी उल्फत भी थी।
*बिरहाना रोड ,कानपुर
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