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 हाथ हैं, काम नहीं



*आशीष दशोत्तर 


सुबह-सुबह एक परिचित का फोन आया, कोई मिस्त्री है क्या? थोड़ा काम करवाना है ।ये परिचित अभी स्थानांतरित होकर अपने शहर में आए हैं। अपनी गृहस्थी को जमाने में लगे हैं। इनका घर काफी समय से खाली पड़ा था।  व्यवस्थाएं पुराने तरीके की है जिन्हें ये  बदलवाना चाहते हैं। इसलिए इन्हें मिस्त्री की आवश्यकता थी।
मैंने अपने परिचित आठ मिस्त्रियों को फोन लगाए।  इन आठ में से दो ने अन्य तीन मिस्त्रियों का नंबर दिया। उनसे भी संपर्क किया । यानी कुल ग्यारह मिस्त्रियों से संपर्क किया। सभी से कहा गया, यह छोटा सा काम है जिसमें लगभग आधा दिन लगेगा। इसे किसी तरह कर दीजिए। सामने वाला पूरे दिन भर की मजदूरी देने के लिए तैयार है। आश्चर्य हुआ इन ग्यारह मिस्त्रियों में से किसी ने भी इस कार्य को करने की सहमति नहीं दी। सभी का यही जवाब था, कि काम करें तो कैसे?  हमारे पास मजदूर नहीं है। कोई मजदूर काम के लिए आने को तैयार नहीं है। मजदूर अपने गांव, डेरे में फालतू बैठे हैं। वहां उन्हें कोई काम नहीं मिल रहा है, लेकिन वे यहां आने से घबरा रहे हैं। उन्हें यह भय है कि वे अगर यहां आए तो उन्हें शहर में क्वॉरेंटाइन कर दिया जाएगा।
मजदूरों के न होने से मिस्त्री खुद चाह कर भी कोई काम नहीं कर पा रहा है। अपने छोटे से शहर के एक छोटे से काम को करवाने में जिन अनुभवों से गुज़रना पड़ा वह काफी तकलीफदेह था। अंततः एक मिस्त्री की काफी मिन्नतें कर और स्वयं उन परिचित ने मजदूर का दायित्व निभाते हुए उसका सहयोग कर वह काम तो करवा लिया, लेकिन इस घटना से कई सारी चिंताएं सामने आ गई । 
इससे यह बात तो स्पष्ट हुई कि हमारी व्यवस्था के पास लीक पर चलने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।  शासन ने निर्माण में उपयोग आने वाली सामग्री की सभी दुकानों को छूट दे दी, सभी दुकाने खुलने लगी, दुकानदारों को यह हिदायत दे दी  दी गई कि वे सामान की होम डिलीवरी करें। उसके बाद सामान दुकानों से भी विक्रय होने लगा। लेकिन इस कार्य को करने वाली मुख्य रीढ़ मजदूरों को किसी तरह की कोई सुरक्षा नहीं दी गई । यह कहा गया कि स्थानीय स्तर पर उपलब्ध मजदूरों से ही निर्माण कार्य करवाए जाएं। लिहाजा आसपास के मजदूरों का यहां आना  असंभव है।  इसके बाद  निर्माण सामग्री के भाव जिस तरह से बढ़े हैं  ,उसे देखते हुए  अभी आवश्यक कार्य ही हो रहे हैं । इसलिए बाहर से मजदूर  अपनी रिस्क पर आ भी जाएं तो उन्हें पर्याप्त काम  मिलना ही नहीं है।
मजदूरों की हालत इस समय जितनी खराब है उतनी शायद किसी की नहीं। ये  मजदूर अपने गांव या क्षेत्र से काफी दूर शहर में ही रहते हैं । यही किसी खुली जगह पर अपनी रात बिता लेते हैं और सुबह फिर से काम पर लग जाते हैं। जो कुछ कमाते हैं उसी से इनका पूरा परिवार पल जाता है । ये मजदूर अभी अपने गांव में डेरे में क्या कर रहे हैं, इसकी चिंता शायद हम नहीं कर सकते। खबरों में ये मजदूर अभी कहीं नहीं दिखाई दे रहे हैं। हर जगह यही बताया जा रहा है कि गांव में पर्याप्त काम खोल दिए गए हैं, मगर हकीक़त कुछ और ही कहती है। हम यह जानकर आश्वस्त से जुड़े हो रहे हैं कि सभी मजदूरों को बेहतर काम मिल रहा है ।सभी को मजदूरी मिल रही है। सभी को राशन मिल रहा है और सभी अपने क्षेत्र में मजदूरी पा कर प्रसन्न हैं। मगर हक़ीक़त इससे जुदा है।
इन मजदूरों से मिलकर इनकी वास्तविकता को जाना जा सकता है। हाल ही में देशभर में मजदूरी की स्थिति को लेकर जो आंकड़े देखने में बहुत चिंताजनक हैं। नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक भारत में श्रम शक्ति भागीदारी दर करीब आधा रह गयी है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनमी  के आंकडों के मुताबिक अप्रैल माह तक भारत में बेरोजगारी की दर 27 प्रतिशत की डरावनी ऊंचाई पर जा चुकी है। ऐसे हालात में मजदूर कहां है, कैसे हैं और किन परिस्थितियों में जी रहे हैं, हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
*रतलाम (म.प्र.)


 


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