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घर बुनता रहा जाले



*अशोक 'आनन'

 

घर बुनता रहा -

नित नए जाले ।

 

अपनों    ने   फिर    रचा -

एक और चक्रव्यूह ।

अभिमन्यु - सा मैं फंसा -

कांपी न उनकी रुह ।

 

फिर वही पांसे -

फिर वही चालें ।

 

बंधा था जिस डोर से -

वह डोर टूट गई ।

जितनी  भी  थीं  राहें    -

वे पीछे छूट गई ।

 

तड़प रहे शब्द -

अधर जड़े ताले ।

 

ज़िंदगी में लगेंगे फिर -

खुशियों  के  मेले ।

आंसुओं  से  ये  नयन -

सुबह - शाम खेलें ।

 

ग्रीष्म - दुपहरी -

रिस रहे छाले ।

*मक्सी,जिला - शाजापुर ( म . प्र .)

 


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