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आत्म की हत्या करें आत्महत्या नहीं



*सुशील कुमार 'नवीन'

आपको भी लगता है बंदा पूरी तरह पगलेट है। सीधी बात को भी सदा घुमा फिराकर कहे बिना इसका दिल है कि मानता ही नहीं।बात यहां आत्महत्या अर्थात् सुसाइड की हो रही है और ये महानुभाव 'आत्म की हत्या' की बात कर रहे हैं। सामान्य हिंदी को समझने वाला भी बता देगा कि अर्थ तो इसका भी यही है। इसमें अलग क्या है। आत्म का मतलब स्वयं यानि खुद की और हत्या का मतलब किसी को मारना। फिर फर्क क्या है। चलिए आपके शब्दकोश में इसका अर्थ यही होगा पर हमारी शब्दावली में तो इसका सम्बन्ध तो कुछ और ही है। टेंशन में आ गए क्या। कोई ऐसी बात नहीं है जिसे आपने न कभी महसूस किया हो, जान कर अनजान जरूर बन गए होंगे। 

यहां आत्म का अर्थ स्वयं या अपना नहीं कह रहा। मेरे अनुसार आत्म का अर्थ 'मैं '(अभिमान) है। वो ' मैं' जिसने बड़े-बड़ों को खुद के लिए आत्महत्या करने जैसी स्थिति पैदा करने को मजबूर कर दिया। ये 'मैं 'ही तो थी जिसे दैत्यों के राजा हिरण्यकश्यप ने विष्णु से सीधे टक्कर लेने की मूर्खता की। रावण ने भी इसी 'मैं' में कहा था- ‘एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति’ मतलब एक मैं ही हूं, दूसरा कोई नहीं है. न मेरे जैसा कभी कोई आया न आ सकेगा।ये सही है उस जैसा महाज्ञानी न कभी पहले हुआ और न कभी भविष्य में होगा। पर उसका अंत भी तो इसी 'मैं' के कारण हुआ ना।इसी 'मैं' में कंस की उसी के भांजे द्वारा हत्या की गई।

'मैं'के साथ आत्म का अर्थ अज्ञानता भी है। नाला देखकर भी रास्ता न बदलना और उसमें गिर जाना अज्ञानता ही है। बड़े बुजुर्ग सदा से कहते आये हैं मुकाबला सदा बराबर वालों से ही करना चाहिए। कम ताकत वाले से द्वंद्व कायरता और अधिक ताकत वाले से मूर्खता कहलाता है। यहां इसका मतलब ये नहीं की कोई ललकारे तो मैदान छोड़कर भाग जाएं। परिस्थिति के अनुसार अपने आपको सम्भालना समझदारी कहलाता है अज्ञानता नहीं।

'मैं 'का अर्थ अति भी है। अति मतलब अधिकता। वो विश्वास की भी हो सकती है अविश्वास की भी। वो समझ की भी हो सकती है और नासमझी की भी। वो प्रेम की भी हो सकती है और घृणा की भी। वो स्वार्थ की भी या परमार्थ की।  वो अवसाद की भी वो प्रसन्नता की भी। वो अतिरेक की भी या व्यतिरेक की। निर्लज्जता की या शालीनता की। अभाव की या समभाव की। कहने की बात यह है कि अति हर चीज की बुरी है। यह मानस को अपने घेरे में ऐसे ले लेती है कि उससे छुटकारा पाना फिर सम्भव नहीं हो पाता है।

 'मैं' का एक अर्थ अकड़ भी है। यह ऐसी बीमारी है जिसका इलाज न किसी मनोचिकित्सक के पास है और न किसी ओझा के पास। एकमात्र लठ ही इसका इलाज है। समझाए से यदि कोई न माने तो सीधे एक लठ बिना पूछे धर दें। छोटी मोटी अकड़ तो इसी से चली जाएगी। ज्यादा बड़ी हुई तो उसके लिए फार्मूला नम्बर दो लगाना पड़ेगा। मौका ताक कर एक पुराना कम्बल उस पर डाल दें। बिना आवाज किये आरामदायक जगहों पर उसे पीड़ादायक रसास्वादन करवाएं। बड़ी से बड़ी अकड़ इससे एक दो दिन बिस्तर में रहने के बाद निकल जायेगी।

हो सकता है आपको ये अजीब लगा हो पर आज के समय में ये 'मैं' आत्महत्या का कारण बन रहा है। तनाव मतलब टेंशन इसी का कारण है। किसी से इतना अधिक प्रेम कर लेते है विछोह सहन नहीं हो पाता है। किसी पर विश्वास इतना अधिक कर लेते है कि जरा सी भूल सहन नहीं हो पाती है। फिर कहते हैं कि मन कर रहा है आत्महत्या कर लूं। औकात से बड़ा काम करना भी इसी का एक कारण बनता है। कहा भी गया है सब्र सबसे बड़ी चीज है। जिसको सब्र में रहना आ गया वो सभी जंग जीत जाता है। ऐसे में कोई भी ऐसा काम न करें जिस पर आपको दुनिया से जाने के बाद लोग बुरा कहें। या आपके कारण आपके माता पिता का नाम नीचा हो। जीवन कीमती है इसे व्यर्थ न गवाएं। इसलिए अपने 'मैं' की हत्या करें आत्महत्या नहीं। 'मैं' खत्म हो गई तो मन अपने आप ही तनाव, अवसाद से दूर जाएगा। 

*हिसार

 


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