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 श्रमिकों की दुर्दशा



*अलीहसन मकरैंडिया


कोरोना ने छीना हमसे, काम-धाम मजदूरी !
भूखे-प्यासे, नंगे पैरों, चलना है मजबूरी !!


गाँव छोड़कर आए शहर में, जीवन यापन करने,
कड़ी धूप में मेहनत करके, सपनों में रँग भरने !
धोखे मिले चुनावों जैसे, वादें खानापूरी !! 1 ।।
भूखे-प्यासे, नंगे पैरों, चलना है मजबूरी !!


महलों-भवनों के निर्माता, झोपड़ियों में रहते,
जाड़ा, गरमी, बरसातें हों, ये अनेक गम सहते !
भूख में अम्मा याद आईं, भूल गये जी हज़ूरी !! 2 ।।
भूखे-प्यासे, नंगे पैरों, चलना है मजबूरी !!


हार गए जुआरी के जैसे, संचित रकम गवाँएँ,
ट्रेन-बसों के नहीं किराये, खबरों ने बहकाएँ !
सपरिवार पैदल चलने के, थे संकल्प जरूरी !! 3 ।।
भूखे-प्यासे, नंगे पैरों, चलना है मजबूरी !!


सड़कों पर है पहरेदारी, पुलिस बनी हैं क्रूर,
सड़क छोड़कर चले पटरियाँ, सो गए थककर चूर !
आई ट्रेन बिछ गईं लाशें व रोटियाँ तन्दूरी !! 4 ।।
भूखे-प्यासे, नंगे पैरों, चलना है मजबूरी !!


आए, विदेशों से ले आएँ, अमीर लोग ये रोग,
करनी उनकी, पीड़ा-आहें, गरीब रहें हैं भोग !
चलते-चलते कई मरें तो, कुछ की मौत अधूरी !! 5 ।।
भूखे-प्यासे, नंगे पैरों, चलना है मजबूरी !!


सिख ना हिन्दू ना ये मुस्लिम, ये श्रमिक हैं इंसान,
कर 'हसन' गरीबों की सेवा, सच्चा यही ईमान !
भागेगा अब कोरोना भी, रखना दो गज दूरी !! 6 ।।
भूखे-प्यासे, नंगे पैरों, चलना है मजबूरी !!


*अलीहसन मकरैंडिया,
एनटीपीसी-दादरी,जिला-गौतम बुद्ध नगर 


 


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