*डॉ वर्षा सिंह
भागदौड़ के इस जीवन में, बचपन पीछे रह जाता
मातु गोद में सोने का सुख, पर भूल नहीं मैं पाता ।
मेरे बचपन की शैतानी, माँ को थी बहुत सताती
नटखट रूप याद कर मेरा, माँ मन ही मन मुस्काती ।
दुख में विचलित होने पर अब, न कोई मुझे सहलाता
पर मेरे अश्रु देख निकलते, दिल माँ का निकला जाता I
झगड़े मोल मेरे लिए माँ, दुनिया से सारे लेती
मेरी बलईया ले, मुझको, वो आंचल से ढ़क देती ।
बुरी नज़र दुनिया की मेरा , नहीं अमंगल कर पाती
काला टीका माथे पर माँ, जब मुझको एक लगाती।
सुरक्षा कवच दुआएँ माँ की, फिर मुझसे तो काल डरे
वार के मुझ पे चंद सिक्के , मैया सारे कष्ट हरे ।
माँ ने अपनी खुशी त्याग के , आज को मेरे सँवारा
बन पतवार मेरी नाव को, बस माँ ने पार उतारा।
*डॉ वर्षा सिंह,मुंबई
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