लॉकडाउन ने बहुत कुछ जाने अनजाने में सीखा दिया।पहले गुस्सा आता था, पर अब कोई विकल्प नहीं था।पहले अपन गुर्राते थे, पर लॉकडाउन में पत्नी का कहना मानना शुरू किया।अन्नपूर्णा वही है,न मानते तो जाते भी कहाँ! लॉकडाउन में मिलना बंद हुआ।यूं ट्यूब से पकवान बनाने सीखे और घर के सदस्यों को सहयोग करना सीखा।प्रेस किए कपड़े। नमकपारे,रसगुल्ले सब बनाये।पर साहब गोलगप्पे नहीं बना पाए। लॉकडाउन से पहले दो कविताएं रोज लिखा करता था,पर 12 अप्रैल से चार कविताएं फेसबुक पर लिखना शुरू किया। व्यंग्य भी खूब लिखे।इस का नतीजा यह हुआ कि लॉकडाउन में तीन व्यंग्य संग्रह देश के चोटी वाले प्रकाशकों को दे दिए।जल्द उनका तहलका होगा। कई मित्रों की भूमिका भी लिखी।जिनमें व्यंग्य और कविताओ की पुस्तकें शामिल है। घर से बाहर जब जरूरी हुआ जाना पड़ा।आफिस में भी पहले हफ्ते में दो दिन,अब तीन दिन जा रहे है। घर की जिम्मेवारियाँ भी बखूबी से निभाने में कोई कसर नहीं रखी। लेकिन साहब कोरोना के बारे में यही कहूंगा कि भैया हिंदुस्तानी तेरे से डरने वाले नहीं है।आई बात समझ में। फेसबुक ने एक परिवार दिया है।अब ट्वीटर पर भी आने की सोची है।लेकिन सतर्कता और सावधानी भी जरूरी है,लगता है इस सावधानी को सिरे से नकारना कठिन होगा हाँ मास्क अवश्य पहनिए।
*डॉ लालित्य ललित, दिल्ली
इस विशेष कॉलम पर और विचार पढ़ने के लिए देखे- लॉकडाउन से सीख
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