Subscribe Us

काट रहे फ़रारी हैं


                  


*अशोक 'आनन'

 

चार   दीवारी   ही  चार   दीवारी  है ।

ऐसे  में  जीने  की  शर्त  लाचारी  है ।

 

द्वार , खिड़की , झरोखा -

न  घर  में संद है ।

घर  की  दरारों  का  भी -

आज मुंह बंद है ।

 

अपने ही घर में , काट रहे फ़रारी हैं ।

ऐसे   में  जीने   की  शर्त लाचारी है ।

 

तथाकथित अपनों का -

भरा     मेला     है ।

सुबह   से  शाम   तक -

मौत का खेला है ।

 

सिर पर तलवार , पांव तले आरी है ।

ऐसे  में  जीने  की  शर्त  लाचारी  है ।

 

द्वार , खिड़कियां गूंगी -

दीवारें  बहरी   हैं ।

अंधेरों    से    अपनी -

दोस्ती गहरी है ।

 

मन की पीड़ाएं भी , आज दु: खियारी हैं ।

ऐसे   में   जीने   की   शर्त   लाचारी   है ।

 

घर है साक्षी, दीवारों के -

मुंह कभी लगे नहीं ।

जी  भरकर  बतियाते  -

मिले ऐसे सगे नहीं ।

 

गीतों ने जिलाया , गीतों के आभारी हैं ।

ऐसे   में   जीने   की   शर्त  लाचारी  है ।

 

*अशोक 'आनन',मक्सी,जिला - शाजापुर ( म.प्र.)

 


साहित्य, कला, संस्कृति और समाज से जुड़ी लेख/रचनाएँ/समाचार अब नये वेब पोर्टल  शाश्वत सृजन पर देखेhttp://shashwatsrijan.comयूटूयुब चैनल देखें और सब्सक्राइब करे- https://www.youtube.com/channel/UCpRyX9VM7WEY39QytlBjZiw 



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ