*अशोक 'आनन'
चार दीवारी ही चार दीवारी है ।
ऐसे में जीने की शर्त लाचारी है ।
द्वार , खिड़की , झरोखा -
न घर में संद है ।
घर की दरारों का भी -
आज मुंह बंद है ।
अपने ही घर में , काट रहे फ़रारी हैं ।
ऐसे में जीने की शर्त लाचारी है ।
तथाकथित अपनों का -
भरा मेला है ।
सुबह से शाम तक -
मौत का खेला है ।
सिर पर तलवार , पांव तले आरी है ।
ऐसे में जीने की शर्त लाचारी है ।
द्वार , खिड़कियां गूंगी -
दीवारें बहरी हैं ।
अंधेरों से अपनी -
दोस्ती गहरी है ।
मन की पीड़ाएं भी , आज दु: खियारी हैं ।
ऐसे में जीने की शर्त लाचारी है ।
घर है साक्षी, दीवारों के -
मुंह कभी लगे नहीं ।
जी भरकर बतियाते -
मिले ऐसे सगे नहीं ।
गीतों ने जिलाया , गीतों के आभारी हैं ।
ऐसे में जीने की शर्त लाचारी है ।
*अशोक 'आनन',मक्सी,जिला - शाजापुर ( म.प्र.)
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