*रंजना माथुर
चिलचिलाती धूप
या हो कड़कड़ाती सर्दी
वर्षा की घनघोर घटा हो
रियायत शब्द बना न जिसके लिए
या यूँ कहें
उसे है सारे मौसमों से प्यार
नहीं जनाब!
यह है पापी पेट की पुकार
यह मजदूर है
लोगों को छत देने वाला
खुद तो रहता सदा ही बेछत
भोर का घर से निकला
सांझ पड़े घर आता
रोज़ कमाता रोज़ है खाता
देख अभावों से जूझते परिवार को
और अधिक थक जाता
हाथ उठकर घरवाली पर
अपनी पूरी खीझ मिटाता
घर भर में उत्पात मचाकर
नशा चढ़ा कर पड़ जाता
इस तरह वह होश गंवा कर
खुद से लड़ निढाल हो जाता।
है यह वो शख्स जो अभावों से अपनी
बार-बार है नज़र चुराता
नित-दिन यही प्रार्थना करता
अब न जन्म मनुज का देना
और न देना फटेहाली
यही अरज मेरी है विधाता।
*रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
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