*अजय कुमार व्दिवेदी
समझ नहीं कुछ आता है, मैं किसको जिम्मेदार कहूँ।
सरकारों को दोषी बोलूँ, या कुछ दुष्टों को गद्दार कहूँ।
बार बार जो फाड़ रहे, अपने ही माँ के आँचल को।
गलत नहीं होगा उनको, यदि अनपढ़ निपट गंवार कहूँ।
कहीं चिकित्सकों के ऊपर, पत्थर की वर्षा होती है।
कहीं किसी चौराहे पर, खाकी लज्जित हो रोती है।
पर समझ नहीं क्यूँ आता है, इन दुष्टों ढ़ोर गवारों को।
दिन रात खड़ी पथ पर इनके, खाकी तो रक्षक होती है।
न्यायालय का भय नहीं, न सरकारों से डरते हैं।
जब भी देखों बातें केवल, तलवारों की करते हैं।
फिर भी इनको दूध पिला, इन सांपों को हम पाल रहे।
जबकि हमको मारने का ये, अक्सर ही दम भरते हैं।
आखिर कब तक चुप बैठे, कब तक हम आघात सहे।
इन देश तोड़ने वालों की, कब तक यूं ओछी बात सहे।
जब नहीं समझ में आता है, इनके प्यार दुलार कभी।
फिर क्यूँ इनकी गलती पर, मौन हमीं हर बार रहे।
सुनो सैनिकों बार बार ना, दुष्टों का आघात सहो।
सत्ता से बोलों चुप बैठे, तुम गोली से हर बात कहो।
यदि तुमनें मन में ठान लिया, ये पत्थर नहीं उठायेंगे।
तुम रक्षक हो भारत माँ के, अब ऐसे ना चुपचाप रहो।
कहो चिकित्सकों की टोली से, इनका ना उपचार करें।
इन दुष्टों के लिए न अपना, जीवन अब बेकार करें।
इन्हें उठा कर बन्द करों तुम, किसी अंधेरी कोठी में।
जितने भी है सबके सब, दम तोड़ एक साथ मरे।
आ गया समय है अर्जुन बन, फिर से गांडीव उठाने का।
कुरूक्षेत्र में एक बार, फिर हाहाकार मचाने का।
दुष्टों को जयघोष सुना दो, धर्म की लाज बचाओ तुम।
यह सही समय है पृथ्वी से, अब अत्याचार मिटाने का।
फिर महादेव की तरह तुम्हारा, तांडव नृत्य जरूरी है।
सरकारें कुछ नहीं करेंगी, सत्ता की मजबूरी है।
पृथ्वी के इस मंथन से , जमात नाम का विष निकला।
तुम सकल गुण अविनाशी हो, इसे पीने में क्या देरी है।
खुल जाए तीसरा नेत्र यदि, तो भस्म दुष्ट हो जायेंगे।
अन्त काल डर कर पापी, शरण तुम्हारी आयेंगे।
फिर वहां भी इनको हे वीरों, ऐसा दंड सुनाना तुम।
फिर मानव जीवन लेने से, ये दुष्ट सदा घबरायेंगे।
*अजय कुमार व्दिवेदी
सोनिया विहार दिल्ली
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