*पुखराज पथिक
बोझ मुझ पर कब तक बढ़ाएं ही जाओगे,
अस्मत को मेरी कब तक लुटाएं जाओगे ।
मुझसे ही तो चलता है सबका दाना पानी ,
सीमेन्ट कंक्रीट मे कितनी दबाएं जाओगे ।
कितना निर्मल अमृत सा जल था कोख मे मेरी ,
रसायन का जहर कब तक पिलाएं जाओगे ।
हरे भरे पेड़ लहराते थे मेरे ही सीने पर,
काट काट कर रकबा कितना घटाएं जाओगे ।
हो गई हूँ जर्जर तुम्हारें ही ज़ुल्मों सितम से ,
कब तक आखिर मुझको यूँ सताएं जाओगे ।
*पुखराज पथिक, नागदा, उज्जैन
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