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रिश्तों की यथार्थ अभिव्यक्ति का पारिवारिक दस्तावेज है उपन्यास- खटटे मीठे से रिश्ते





 

 "दो प्रेमी , दो परिवार और उनसे जुड़े  कुछ लोगों के कार्य व्यवहार से "बनते- दरकते - बनते" रिश्तो की यथार्थ अभिव्यक्ति का पारिवारिक दस्तावेज है - गरिमा संजय का उपन्यास - " खट्टे मीठे से रिश्ते"।
इस उपन्यास पर चर्चा करूँ इससे पूर्व यह बताना आवश्यक है कि इसकी लेखिका लोकप्रिय साहित्यकार एवं प्रतिष्ठित पत्रकार है। यह उनका तीसरा उपन्यास है। इससे पूर्व दो अन्य उपन्यास- "आतंक के साए " और " स्मृतियाँ " प्रकाशित हो चुके हैं। अलावा इनके दर्जनों कहानियां,कविताएं, लेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। गरिमा संजय ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और संस्कृत साहित्य से ग्रेजुएट एवं प्राचीन इतिहास तथा पत्रकारिता एवं जनसंचार में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा किया है। वे अनेक सरकारी एवं गैर - सरकारी संस्थाओं के लिए लेखन,पटकथा -लेखन, डाक्यूमेंटरी / कॉरपोरेट/विज्ञापन जैसे क्षेत्रों में सक्रिय हैं।
जैसा कि मैने ऊपर कहा , यह उपन्यास- " खट्टे मीठे से रिश्ते " दो प्रेमी , दो परिवार और उनसे जुड़े  कुछ लोगों के कार्य - व्यवहार से "बनते- दरकते - बनते" रिश्तों की यथार्थ अभिव्यक्ति का पारिवारिक दस्तावेज है । मनोविज्ञान को सहज समेटे इस उपन्यास को पढ़ते हुए हर पाठक को यह लगेगा कि कहीं न कहीं या तो हम भी इस के एक पात्र हैं या ऐसे ही किसी दृश्य के साक्षी हैं।
लेखिका स्वयं कहती हैं - "खट्टे मीठे से रिश्ते " मसालेदार घटनाओं की कहानी नहीं है । यह जिंदगी के उतार-चढ़ाव को , रिश्तों की  खींचतान को कहानी के रूप में देने की कोशिश है । कहानी है , रिश्तों में आने वाले बदलावों की, रिश्तों के नाम बदलते ही उनके रूप भी बदल जाते हैं । अपेक्षाएं बदल जाती है और उन अपेक्षाओं में बंधे लोगों के व्यवहार बदल जाते हैं । भावनाएं बदल जाती हैं । कहानी में केवल रिश्तो में होने वाली खींचातानी को ही नहीं बल्कि समाज की एक और खींचतान पर प्रकाश डालने का प्रयास भी किया है । वर्तमान में हम जात पांत से तो कुछ कुछ उबरने लगे हैं लेकिन वर्ग भेद अभी भी बहुत विचित्र रूप से कायम है।  कई तरह के वर्ग भेदो में से एक है नौकरी पैसा और व्यापारी वर्ग के बीच का भेद ।  निष्पक्ष रूप से विचारें तो हम सभी जानते हैं कि समाज में इन दोनों ही वर्गों का योगदान महत्वपूर्ण है। लेकिन ना जाने क्यों और कैसे अक्सर इन दो वर्गों के बीच अहम का टकराव हो जाता है कोई ऊंचे ओहदे पर गर्व करता है तो कोई व्यापारिक साख पर । आमतौर पर रिश्ते अचानक नहीं टूटते ...वे बिखरने लगते हैं। त्रासदी यह है कि जिस समय इस बिखराव की शुरुआत होती है उस समय अधिकतर लोग या तो अहम में चूर होते हैं या फिर इतने लापरवाह की बिखराव की आवाज ही नहीं सुनते । ऐसी ही भावना और उनसे जनित संभावनाओं को एक कहानी के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास है यह उपन्यास - " खट्टे मीठे से रिश्ते।" लेखिका की इस अभिव्यक्ति से मैं स्वयं को भी सहमत पाता हूँ।
बचपन की दो सहेलियों का लंबे अंतराल के बाद मिलना और पारिवारिक सदस्य की तरह हो जाना...हर कहीं सामान्य सी घटना हो सकती है। फिर कभी - कभी, कहीं - कहीं यह भी होता है इनके युवा बच्चे ,जाने-अनजाने में एक दूसरे को चाहने लगें। उन्हें जीवन साथी के रूप में देखने लगें लेकिन अपने परिवारों की मान-मर्यादा,पद-प्रतिष्ठा और विजातीय सम्बन्धों के चलते इन रिश्तों को दर्द और विछोह के दंश से भी गुजरना पड़े। ऐसी स्थिति में या तो बच्चे विद्रोही हो जाते हैं या भाग कर शादी कर लेते हैं । जो ऐसा नही कर पाते वे अधिकतर या तो कोई अवांछित हरकत कर बैठते हैं या स्वयं के प्राणों की आहुति दे देते हैं।  विरले ही  युगल ऐसे होते हैं जो परिवार की स्वीकृति के लिए जीवन पर्यंत इंतजार की आश में अविवाहित रहने का प्रण कर सकें और उस पर अमल भी करें। सभी स्थितियों में इसका दंश बच्चों के साथ परिवारों को भी भुगतना पड़ता है।
बदलते समय मे ,आधुनिकता के चलते अब बदलाव आया है। ज्यादातर समझदार परिवार इन स्थितियों के आने से पहले ही अपनी स्वीकृति दे देते हैं। सकारात्मक परिणाम के बावजूद भी इन रिश्तों में वर्ग-विभेद और पद प्रतिष्ठा का अहंकार तो रहता ही है। यही अहंकार किसी की भी जिंदगी में विष घोलने का पर्याप्त कारण बनता है। इसमें हमारे आस-पास के ही कुटिल व्यक्तित्व के लोगों की भूमिकाएं प्रमुख होती हैं।वहीं दूसरी ओर रिश्तों में कुछ समझदार व्यक्तित्व भी होते हैं जो बिखराव की लड़ी को अपने सहज प्रयासों से
पुनः गठते हैं। ऐसे ही लोगों से आज समाज - परिवार को संजीवनी मिली हुई है। ये रिश्ते ही हैं जो खट्टे से, मीठे से होते हैं।
उपन्यास के मुख्य प्रेमी किरदार-  गौरी और अविनाश का प्रेम निश्चल प्रेम था। मर्यादित प्रेम था । वे संस्कार के धनी युगल थे । अपनी उद्दाम प्रेम भावनाओं पर नियंत्रण करना और बिना परिवार की सहमति के विवाह बंधन में ना बंधने का उनका निर्णय खुद को ही नहीं समाज को भी गौरवान्वित करने वाला था । दो परिवारों की अहंकार की लड़ाई में वे हार चुके थे पर हार कर भी क्या वास्तव में हार गए थे ?
नहीं ! उन्होंने अपने कार्य - व्यवहार से यह सिद्ध कर दिया था कि- जीतने वाले लीक पर नहीं चलते  वरन वे लीक से हटकर चलते हैं । यही किया गौरी और अविनाश ने भी। अविनाश के अडिग प्यार ने गौरी को साहस दिया तो गौरी के निस्वार्थ प्यार ने अविनाश को शक्ति दी।  परिस्थिति बस उन्हें लगा कि वह एक दूसरे को खो देंगे पर उन दोनों ने स्वयं को कभी नहीं खोया। यही उनकी सबसे बड़ी ताकत भी रही जिसने दो परिवारों के अहम को तोड़ा और उन्हें एक कर दिया ।
इस उपन्यास के सारांश पर आएं तो- बचपन की दो बेमेल सहेलियों का एकाएक मिलना । बेमेल इसलिए एक उच्च शिक्षित प्रिंसिपल है जो स्वतंत्र विचारों की सुलझी और परिपक्व महिला है तो दूसरी ओर रूढ़िवादिता के भंवर में फंसी अपने ही अहम में चूर धनिक व्यक्तित्व की सेठानी है। एक के पति के पास पद प्रतिष्ठा है तो दूसरी सहेली के पति का स्थापित व्यवसाय है।  बावजूद इसके इन दोनों परिवारों में धीरे-धीरे घनिष्ठता बढ़ती है और युवा होती गौरी तथा अविनाश का मेल जोल,आकर्षण में बदलते हुए प्यार के परवान चढ़ जाता है। जब परिवार वालों को पता चलता है तो थोड़ी ना-नुकुर के बाद इस विजातीय शादी के लिए सहमति बन जाती है और दोनों की सगाई हो जाती है।
यहीं से शुरू होता है- शिक्षा और व्यवसाय की महत्ता का आपसी संघर्ष। बदलते रिश्तों का संघर्ष और लेन-देन की मर्यादा के उल्लंघन का संघर्ष। रिश्तों के विषैली करण करने में अनावश्यक हस्तक्षेप का संघर्ष। फलतः टूट जाता है  वह बंधन , जो जोड़ रहा था -   दो परिवारों को , बचपन की दो मित्रता को लेकिन नही तोड़ पाता है दो प्रेमी दिलों को। अलग होकर भी वे मन से दोनों ही परिवार इस रिश्ते के टूटने से दुखी हैं। अपने बच्चों के कठोर निर्णय और उनके दुख से दुखी हैं पर अहंकार के आवरण ने संवाद के सारे द्वार बंद कर दिए हैं। ऐसे में इस दर्द को समझने वाले रिश्ते भी हैं और इन सबको पुनः मिलाने वाले रिश्ते भी। जीवन में ये खट्टे मीठे से रिश्ते न हों तो जीवन कैसा ?
पाठकों को लग रहा होगा - मैने उपन्यास की इस चर्चा में केवल पहेलियां ही बुझाई हैं । हाँ, स्वीकारता हूँ इसे क्योंकि इन्हें सुलझाना तो आपको भी है न ! पढ़कर।
मैँ सिर्फ इतना ही कहूंगा ,सहज,सरल और पारिवारिक भाषा मे लिखे गए इस उपन्यास से यह शिक्षा तो मिलती ही है कि जात-पांत, वर्ग- विभेद और पद-प्रतिष्ठा को तो एक बार नकारा जा सकता है लेकिन बिना किसी राम के आज भी अहंकार के रावण का दहन नही किया जा सकता। राम बनने का प्रयास तो करना होगा और अपने बच्चों को भी इस प्रयास में शामिल करना होगा।

उपन्यास -      खटटे मीठे से रिश्ते
उपन्यासकार - गरिमा संजय
प्रकाशक -      ज्ञान विज्ञान एजुकेयर,दिल्ली
मूल्य -             350 /-

*देवेन्द्र सोनी , इटारसी
(चर्चाकार वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 


 

 


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