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प्रथम कालिदास समारोह से जुड़े कुछ संस्मरण




डॉ मुरलीधर चांदनीवाला*


1958 में ठीक देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन उज्जयिनी में अखिल भारतीय कालिदास समारोह की शुरुआत हुई थी । पूरी नगरी उत्सवमयी थी । मैं तब मात्र सात वर्ष का था। तब मोबाइल , कैमरे आज की तरह न थे , किंतु बहुत सारे दृश्य ज्यों के त्यों आँखों में अब भी तैरते ही रहते हैं। विवाद तो तब भी हुए । एक तो उद्घाटन के लिये राष्ट्रपति जी जिस विशेष रेलगाड़ी से आ रहे थे , उसके इंजिन का नाम 'विक्रमादित्य' रखा गया था , और जो इंजिन उसकी अगुआई कर रहा था ,उसका नाम 'कालिदास' रखा गया था । और एक तीसरे वैकल्पिक इंजिन का नाम 'मेघदूत' रखा गया था। तब जागरूक नेताओं और पत्रकारों ने इस व्यवस्था का जम कर विरोध किया,और इसे विक्रमादित्य व कालिदास का अपमान तक बता दिया था ।



कालिदास समारोह के उद्घाटन अवसर पर राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्रप्रसाद जी , मुख्यमंत्री डाॅ.कैलासनाथ काटजू , डाॅ. शंकरदयाल शर्मा , ओंकारनाथ ठाकुर , आचार्य हजारी- प्रसाद द्विवेदी , पण्डित सूर्यनारायण व्यास , राज्यपाल हरिविनायक पाटस्कर सहित राष्ट्र की महान् विभूतियाँ उपस्थित थीं। पहले कालिदास समारोह में ही कालिदास की जन्मभूमि को लेकर विवाद खड़े हुए।सब विद्वान् यह मानने को तैयार नहीं थे कि कालिदास उज्जयिनी में हुए। विवाद बहुत ही गहरा था। मुख्यमंत्री कैलासनाथ काटजू ने राष्ट्रपति जी के सामने मंच पर माईक के सामने खड़े होकर अपने दाँयें पैर को जोर से जमीन पर पटकते हुए कहा कि"मैं इस समय जहाँ खड़ा हूँ ,कालिदास का जन्म यहीं ,ठीक इसी जगह पर हुआ था।" उनके यह कहने के बाद पूरे सात दिन के समारोह में किसी विद्वान् ने कभी कालिदास की जन्मभूमि को लेकर विवाद नहीं छेड़ा ।


पहले कालिदास समारोह में रूसी विद्वान् वारान्निकोव भी आये थे। उन्होंने अपना भाषण संस्कृत में ही दिया । उन्हें बड़ी हैरानी हुई कि लगभग सभी भारतीय विद्वान् अपना भाषण अंग्रेजी में दे रहे थे।वारान्निकोव ने इस बारे में कुछ तल्ख टिप्पणियाँ भी कीं।उपस्थित विद्वानों और भारतीय संस्कृति की पैरवी करने वालों को उस दिन सबके सामने बहुत नीचा देखना पड़ा था । दूसरे ही दिन अखबारों में वारान्रिकोव की टिप्पणियाँ सुर्खी में छपी थीं।



उस दिन का एक रोचक किस्सा बड़ा मशहूर है । राष्ट्रपति डाॅ.राजेन्द्रप्रसाद जी ने उज्जयिनी-भ्रमण की इच्छा व्यक्त की। वे पहली बार उज्जयिनी आये थे । उन्हें उज्जयिनी- भ्रमण कराने का जिम्मा तत्कालीन ग्वालियर नरेशश्रीमंत जीवाजीराव सिन्धिया ने आगे हो कर लिया । वे राजेन्द्र बाबू के साथ खुली जीप में सवार हुए। जीप महाराजा ही चला रहे थे । छत्रीचौक से होते हुए जब वे गोपालमंदिर पहुँचे , तब वहाँ दोनों तरफ कतारबद्ध खड़े जन-समूह ने " महाराजा जीवाजीराव सिन्धिया अमर रहे " का घोष करना आरम्भ कर दिया । राष्ट्रपति जी अपार जन-समूह का उत्साह-संवर्धन करते हुए स्वयं भी दाहिना हाथ उठा कर "अमर रहे । अमर रहे।।" का घोष करने लगे ।



संध्यासमय सांस्कृतिक कार्यक्रम के अंतर्गत कालिदास का नाटक "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" खेला जाना था। सब तैयारी हो चुकी थी । रंगमंच के नीचे प्रेक्षागृह में आगे की पंक्ति में राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद , डाॅ.कैलासनाथ काटजू , राज्यपाल सहित महत्वपूर्ण हस्तियाँ बैठी हुई थीं। दूसरी पंक्ति में राष्ट्रपति जी के ठीक पीछे पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर बैठे हुए थे । नाटक आरंभ होने से पहले विशिष्ट अतिथियों को चाय पेश की गई।शीत लहर थी।राष्ट्रपति जी सहित सभी गणमान्य चाय का आनंद ले रहे थे।तभी यवनिका हटी। मंच पर सूत्रधार ने प्रवेश किया। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर ने चाय का स्वाद ले रहे राष्ट्रपति जी के कन्धे पर हाथ रखते हुए कहा - " राजेन्द्र बाबू ! चाय का प्याला रख दीजिए। नाटक आरंभ हो चुका है।" और
बस , राष्ट्रपति जी ने तत्काल चाय का प्याला नीचे रख दिया।


उस वर्ष देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन पहले कालिदास समारोह के अवसर पर उज्जयिनी में पधारे हुए विद्वान् अतिथियों के सम्मान में उज्जयिनी को बहुत ही सीमित साधनों के रहते सादगीपूर्वक ,किंतु बहुत ही सुंदर ढंग से सजाया गया था ।मुझे अच्छी तरह से याद है , देर रात जब राष्ट्रपति जी रेल से बिदा हो रहे थे , तब मेरे बड़े भाई साहब साइकिल पर बैठाकर रेल्वे स्टेशन ले गये थे । मैंने देखा , राष्ट्रपति जी कम्पार्टमेंट के बाहर गेट पर खड़े होकर हाथ हिलाते हुए अभिवादन कर रहे थे । रेल सीटी दी रही थी , गाॅर्ड हरी झंडी दिखा रहा था। कोई अतिरिक्त भीड़-भाड़ नहीं थी। देखते ही देखते रेलगाड़ी रवाना हुई । बहुत दूर तक भी राष्ट्रपति जी मुस्कुराकर हाथ हिलाते हुए दिखाई देते रहे।


*डॉ मुरलीधर चांदनीवाला,रतलाम























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