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जो अब तक मुझे,नित कहर-सी लगी




*प्रो.शरद नारायण खरे*

जो अब तक मुझे,नित कहर-सी लगी ।

यकायक वो झिरिया,नहर-सी लगी ।

 

था बेनूर आलम,उजड़ा था उपवन,

वो प्यारा-सा नग़मा,बहर-सी लगी ।

 

जो रातों की स्याही,अमावस के पल थी,

वो पूनम का चंदा,सहर-सी लगी ।

 

नहीं कोई रौनक,नहीं थी मुहब्बत,

यकायक महल-सी,वो घर-सी लगी ।

 

मिरी भूल थी,उसको समझा नहीं था,

थी यह ही वज़ह ,वो ज़हर-सी लगी ।

 

बनी रुह की ताक़त,'शरद' हौसला वो,

मैं उड़ लूं गगन में,वो पर-सी लगी ।

 

*प्रो.शरद नारायण खरे,मंडला(मप्र)

 






















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