Subscribe Us

यह कैसा समय का दौर हो चला है (कविता)



*वन्दना पुणतांबेकर*


यह कैसा समय का दौर हो चला है।


किसी को किसी की खबर नहीं।


हरकोई बेख़बर हो चला है।


सत्ता के मोह के मोहताज है,सभी यहां।


किसी को किसी की चाह।


हर कोई चाह में दौड़ चला है।


यह कैसा समय का दौर हो चला है।


घर बड़ा है,मकान का दर बड़ा है।


उस घर मे अपनापन कही खो चला है।


प्यार दिखता नही,अब इस दौर में।


दिखावे के आईने में सब मुकम्ल हो चला हैं।


यह कैसा समय का दौर हो चला है।


शानो शौकत के इस दौर में।


हर शख्स रंजिशो की गिरफ्त में खो चला हैं।


नारी बेटियां सम्मान पा रही आज मंचो पर।


अंधेरी गलियों में आबरू की खातिर


आँचल बेआबरू हो चला है।


यह कैसा समय का दौर हो चला है।


ख्वाईशो की चादर ओढ़े


बईमानी का ताज पहने हर कोई बेखबर हो चला है।


रात में फुटपाथों पर सोते


इंसा ठिठुरन से सिमटकर  चीर में सो चला है।


यह कैसा समय के दौर हो चला है


*वन्दना पुणतांबेकर,इंदौर मो.9826099662



शब्द प्रवाह में प्रकाशित आलेख/रचना/समाचार पर आपकी महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया का स्वागत है-


अपने विचार भेजने के लिए मेल करे- shabdpravah.ujjain@gmail.com


या whatsapp करे 09406649733


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ