*सुषमा भंडारी*
संवेदनाओं, भावनाओं
व अहसासों का पुंज होती है स्त्री
फूलों में खूशबू का जैसे वास होता है
ठीक वैसे ही
घर की हर वस्तु में
हर रिश्ते में
बसती है स्त्री
मरूस्थल में नदी के मीठे झरने सी
बहती है स्त्री
हर सुख में हर दुख में
कभी लोरी बन, कभी गीत बन
और कभी
प्यारी सी थाप बन
बन जाती है नन्ही कन्या से किशोरी
किशोरी से माँ , माँ से वृद्ध
जब सिसकते हैं आँखो के किनारे
और बहने लगते हैं ये धारे
बन जाती है सेतु एक स्त्री
कभी जीते जी मर जाती है
और कभी मर कर भी जीवित रह्ती है
हर शै में
कभी अमृत से कडवाहट
और कडवाहट से अमृत
हो जाती है स्त्री
कभी एक चाह और कभी
अथाह हो जाती है स्त्री
समझ से परे।
*सुषमा भंडारी,फ्लैट नम्बर- 317,प्लैटिनम हाइट्स,सेक्टर-18 बी , द्वारका, नई दिल्ली,मो9810152263
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