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कुम्हार के दिये (कविता)










*अजय कुमार द्विवेदी*

मै सूखी खेत से निकली मिट्टी।

फिर हुई कहीं मै गीली मिट्टी।

 

कुम्हार ने मुझे आकार दिया।

दीपक का एक प्रकार दिया।

 

फिर झोंक दिया अग्नि मे मुझको।

मै अपनी तपन दिखाऊँ किसको।

 

अग्नि बुझी मै बाहर आई।

मेरे मुख पर सुन्दरता छाई।

 

फिर कुम्हार कुछ रंग ले आया।

मेरी समझ में कुछ नहीं आया।

 

वो रंग कुम्हार ने मुझे लगाया।

बड़े प्यार से मुझे सजाया।

 

बड़ी मेहनत से उसने मुझे तैयार किया।

फिर बिकने के लिए बाजार मे उतार दिया।

 

पर बाजार में तो चाइनीज़ दीप छाए थे।

लोग मुझे नहीं उन्हें खरीदने आए थे।

 

मै कुम्हार की टोकरी से चुपचाप देखती रही।

मन ही मन बैठे बैठे अपने आप को कोसती रही।

 

हुई शाम कुम्हार ने सर पर टोकरा उठाया।

खाली हाथ लिए बेचारा अपने घर लौट आया।

 

हुई रात सबके घर में चीनी दिए जगमगा रहे थे।

किंतु कहीं कुम्हार के बच्चे भूखे पेट आंसू बहा रहे थे।

 

मुझसे रहा न गया मै जोर से चिल्लाई।

पर मेरी आवाज किसी को कैसे दे सुनाई।

 

सोचतीं रही काश कुम्हार को थोड़ी खुशी मिल जाए।

उसके बच्चों को भी फोड़ने के लिए एक दो फुलझड़ी मिल जाए।

 

ये सब देखकर ऐसा लगा जैसे रोशनी खुद अंधेरे में बैठी हो।

इस कुम्हार की किस्मत कुम्हार से बहुत ज्यादा रूठी हो।

 

इस दिवाली आप सभी से प्रार्थना है मेरी।

बस कुम्हार के दिए आप सब खरीदें यही कामना है मेरी। 

 

*अजय कुमार द्विवेदी,दिल्ली 


 













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