म.प्र. साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा नारदमुनि पुरस्कार से अलंकृत

दीवाली विशेष-दीपलक्ष्मी (लघुकथा)











*माया मालवेंद्र बदेका*


शगुन पर शगुन आ रहे थे। मिठाई के अम्बार लग गये। जरदोजी जरी रेशम की साड़ी में समधन समाहित हो गई। रिश्तेदारी में डंका बजा,बहू बहुत बड़े घर से आई है। बहू के पिता की बहुत आन बान शान है।हमारा बेटा कुछ ऐसा ही है जो पसंद करता है,वह नगीना ही होता है।  प्रशंसा के  खूब कशीदे कढ़े गये।


आओ बहू आज पहला दीप तुम धरो,तुम घर की लक्ष्मी हो। इस घर की कुलवधु लक्ष्मी हो।


पूजन करने के लिए बैठने का रिवाज है,बहू कहां यह सब करती। हाथ में सुनहरी बटुआ झुलाते हुए बोली- अम्माजी यह सब आपका काम है,आज तो दीपावली की रात है हमारे दोस्त प्रतिक्षा कर रहे हैं,आज तो सारी रात हम बाहर रहेंगे।


'दीपक की लौ सदा  धीरे धीरे जलती रहती है। बिजली अक्सर गुल हो जाया करती है'।अम्मा को पता चल गया था कि 'चमक दमक की लक्ष्मी से लक्ष्मी प्रसन्न नहीं होगी'।


'मां लक्ष्मी को दीपक की मंद लौ ही भाती है"।और अम्मा ने सारे दीप प्रज्जवलित कर दिये।


*माया मालवेंद्र बदेका, उज्जैन











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