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ज़िन्दगी कुछ इस तरह से जीती हूँ (कविता)


 

*मीनाक्षी सुकुमारन*

 

सुनती हूँ सबकी

करती मन की

दुखे न दिल मुझ से कोई

नम न आँख हो मुझ से कोई

इसलिए अक्सर रहती बस खामोश

और रह जाती बात दिल की 

 दिल में ही 

करती यत्न बस इतना

ज़िन्दगी हो छल झूठ से परे

सच और सच्चाई से रहे

महकता दिल और घर आँगन

नहीं आता कपट

नहीं आता चलना चालें

इसलिए अक्सर खा जाती हूँ मात

बनते बिखरते रिश्तों से

अपनी सुविधा अनुसार

रोता है तड़पता है दिल

पर लगा देती हूँ मरहम

उस पर फिर धैर्य की

यूँ जीती हूँ अपनी ज़िन्दगी

कुछ इस तरह

सुनती सबकी करती मन की

न बदलती

न बहलती

बातों के ताने बानों से

माना दिल मासूम है

मेरा पर दिया नहीं हक

कभी किसी को इस से

खेलने का

माना सच है ढाल इसकी

दिया नहीं हक किसी को

इस से खेलने का

दिखती बहुत कमज़ोर हूँ

पर निश्चय की पक्की हूँ

मन की सच्ची हूँ

ज़िन्दगी कुछ इस तरह से जीती हूँ

रोज़ आईने में जब खुद को देखूँ

तो कभी चुरानी न पड़े नज़र

खुद से ही खुद की कभी भी।।

 

*मीनाक्षी सुकुमारन,नोएडा

 


 


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