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तुम्ही बता दो मैं किधर जाऊं (कविता)



*डॉ दीपेन्द्र शर्मा*


कुछ वक़्त मुझे दो तो मैं सुधर जाऊं 
तुम्हारे पास ठहरा हूं बता दो किधर जाऊं 



एक तरफ पहाड़ एक तरफ खाई है 
कोई दरिया बता दो तो उसी में उतर जाऊं


 
यह वक्त है इसकी बादशाहत कायम है
मैं कोई मोहरा नहीं जो बेवक्त मर जाऊं



तराशना मुझे भी हर फलक से इस कदर 
पत्थर तो नहीं फिर भी मैं तर जाऊं 



ना तुम मुझसे निराश हो न मैं तुमसे 
तो फिर तुम ही बता दो मैं किधर जाऊं


 
ना रात का साथ है ना ख्वाब साथ देते हैं 
पाने को मुकम्मल सुबह मैं किधर जाऊं



झोपड़ियों ने इस कदर कैद कर रखा है खुशियों को 
मैं महल वाला होकर भी तरस जाऊं



तुम्हारा जीवन थोपे गए निर्णयों की कहानी है
उजड़ी हुई बस्ती में मैं अपनी दास्तां किसे सुनाऊं 



हर तरफ चकाचौंध है अजीब सा कोलाहल है 
भूली बिसरी खामोशियां अब मैं किसे सुनाऊं


 
तुम्ही बता दो मैं किधर जाऊं।


*डॉ दीपेन्द्र शर्मा, धार म. प्र.



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