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स्वीकारो या उपेक्षित करो(कविता)





*सविता दास सवि*

 

ये जो संकोच पलता है ना

मन में तुम्हारे

मेरे अस्तित्व को स्वीकारने या 

नकारने के लिए

इसे तुम थोड़ा सा ढील दो

देखो मैं कोई पतंग सी 

उड़ती हूँ

या तुम्हारे अहं के खूंटे से

बंधी रहती हूँ

इतना ही तो आकलन है 

मेरी इस काया का

 

आत्मा तक कहाँ

पहुँच पाते हो

मेरी आँखों में

तुम्हारा प्रतिबिम्ब

नीले , नभ सा

और तुम थक जाते हो

मेरे माथे के संकुचित लकिरों में

ये भी तो उन ज़िम्मेदारियों की देन हैं

जो  तुम्हारे साथ मिली

 

जानते हो तुम

ना मैं पतंग हूँ

ना खूंटे से बंधी कोई 

मूक जीव 

मैं तुम्हारे अस्तित्व का

 महत्वपूर्ण हिस्सा हूँ

जन्मों से जुड़ा तुम्हारे साथ कोई 

किस्सा हूँ

स्वीकारने, नकारने से परे हूँ

तुम अपनाओ या

उपेक्षित करो 

हर भाव में बस तुम्हारी

 

अब आकलन स्वयं का

करो की मैं

तुम्हारी आत्मा के प्यास के लिए

कोई छोटा सा मीठे पानी का

 कुँआ बनूँ

या आडम्बर से भरा 

विशाल, खारा समुद्र।

 

*सविता दास सवि,तेज़पुर, असम


 

 



 

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