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मेरे हाथों पे तुम अपना हाथ रखो(कविता)






*विक्रम कुमार*

 

मैं डगर पर तुम्हारे चल चुका हूं सुनो
तुम भी अपना हृदय मेरे साथ रखो

मैं बढा़ऊं तेरी ओर जब भी सुनो

मेरे हाथों पे तुम अपना हाथ रखो 

 

एक दूजे को देखें जी भरकर के हम

एक दूजे की आंखों में खो जाएं हम

एक ऐसे मिलन की तरफ हम बढे़ं

दो जिस्म एक जान हो जाएं हम

मैनें अपनी ये बातें बता दीं तुम्हें

तुम भी खुलकर जरा अपनी बात रखो

मैं बढा़ऊं तेरी ओर जब भी सुनो

मेरे हाथों पे तुम अपना हाथ रखो 

 

वादियों में मोहब्बत की साथ चलें

बैठे जाकर वहां हम जहाँ भूलकर

एक दूजे की आंखों में ऐसा बसें

अक्स देखेंगे हम आईना भूलकर

दे दूं जीवन ये अपना तुम्हें मैं प्रिय

तुम भी मेरे लिए सौगात रखो

मैं बढा़ऊं तेरी ओर जब भी सुनो

मेरे हाथों पे तुम अपना हाथ रखो 

 

*विक्रम कुमार ,मनोरा, वैशाली मो.9709340990

 


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