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मंजरी(लघुकथा)


-माया मालवेन्द्र बदेका

सुई में धागा डालते समय सुई बहुत तेजी से चुभ गई, और वह बरसो पहले की इस चुभन को बहुत अच्छी तरह महसूस कर रही थी।

 

तुलसी की माला पिरोते हुए सासू मां बोली थी__"बहू तुलसी से मंजरी मत गिरने देना"।

माला में मंजरी और तुलसी पत्र हो तभी भगवान को स्वीकार होती है।

 

अच्छा मांजी ,और उसने बहुत सावधानी से तुलसी की माला बना सासू मां को दे दी।

 एकादशी व्रत में वह माला उन्हें भगवान जी को समर्पित करना थी।

 

सासू मां चलते चलते बोल गई बहू इस माला के भाव जैसा तेरा समर्पण तेरी गृहस्थी को सुखी रखेगा।

 

काश _बेटे को कभी इतने संस्कार देना उनकी सोच में होता। 

भानु का पति ,इकलौता बेटा और घर का वंशज उसे सभी माफ था।

 मां की परवरिश बेटे को बुढ़ापे की लाठी समझकर रही,क्योकि और कोई सहारा न था।हर बुरी आदत माफ थी।

 

बेटे के गुलाबी फूल कहीं और महकते रहे ,और वह तुलसी की सूखी मंजरी सी खिरती रही थी ।

 

-माया मालवेन्द्र बदेका

७४_अलखधाम नगर

उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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