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लड़कियां (कविता)



*मीना अरोड़ा*

 

उधड़े कपड़ो से

बदन की नुमाइश करती

लड़कियां

तंग कपड़ों में अंग दिखाती

मन उकसाती

 लड़कियां

आते जाते दिख जाती हैं

कहीं न कहीं राहों में

उनके पास 

ओढ़ने को,

 रहती है ओढ़नी

जिससे वो अपने चेहरे को

ढांप कर अपना

कांपलेक्शन फेयर रखती हैं

वो मासूम इतना तो

जानती हैं यदि

रंग काला हो गया

 तो जंचेगा नहीं

पर चरित्र के बारे में

उन्हें समझाया गया नहीं 

वो अनुसरण करती हैं

मॉडल तथा अभिनेत्रियों का

वो उनकी तरह

छोटी छोटी समस्याओं 

से जूझने को

पहनती हैं 

छोटे-छोटे कपड़े

और उनकी इस नकल को

बेहूदा चाल चलन को

एक ओर हम

फैशन में होना मानकर

नजरांदाज करते हैं

और न जाने

 कैसे कैसे दोष

जो हमको नहीं अखरते हैं

पर दूसरी ओर इनको 

 नजर भर कर

ताकने वाले

 वहशियों की

तीखी नजरें

इनके चरित्र को आंकती हैं

उन कसे हुए उत्तेजित

वस्त्रों के अंदर की

गहराई को झांकती हैं

हाथ नहीं पहुंचते इनके

 खिले फूलों तक जब

भुगतती परिणाम इसका

एक नन्ही कली है तब

अब जरुरी हो गया है

नजर और पोशाक

दोनो को बदला जाए

इनकी उनकी गल्तियों की

 सजा एक निर्दोष

क्यों कर पाए

कभी सोचा है कि

यह कैसी उन्नति  है

जो आजादी के नाम पर

ना जाने किस 

ओर ले जा रही है

आधुनिकता के नाम पर कैसे

संस्कृति छली जा रही है

यह सच है कि 

वस्त्र किसी चरित्र का

 मापदंड नहीं

पर यह भी तो सच है

वस्त्रहीनता भारत देश की

परम्परा नहीं

हो सकता है 

किसी रोज इनको

अपनी आबरू बचाने को

हथियार भी उठाना होगा

पर वस्त्रों की महिमा इन्हें

समझना और समझाना होगा।।

 

*मीना अरोड़ा,हल्दवानी,उत्तराखंड



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