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औरत (कविता)















         -डाॅ.क्षमा सिसोदिया

 


जिंदगी के तकलीफों का बड़ी ख़ूबसूरती से

रफू,पैबंद फिर  तुरपाई करती रहती है औरत।

 

अपनी चुप्पी भरी खामोशी में सौ दर्द 

 दफन कर लेती है औरत........ ।

 

दूसरे के क्रोध को भी उसे धैर्य भरा, 

मासूमियत से खूब सहने आता है।

 

परिवार चलाने-बसाने की कला में भी

 खूब तो खूब पारंगत होती है औरत।

 

अपने मन की खुशियाँ भी छुपा लेती है, 

बनकर वह एक पारदर्शी शीशा की तरह।

 

अपने दुःखते रग को भी अलग-अलग 

भूमिकाओं में खुद  रच लेती है औरत। 

 

पा लेती है,अपने बिखरे सुखों को भी

वह अपने ही परछाईयों में........।

                 

नागफनी-सा रुप लिए जब अंधेरा चढ़ आता है,          

आत्मबल से तब मोगरा सुगंध बिखेर लेती है औरत। 

 

रोशनी ने जब-जब जुल्म किए हैं जिंदगी पर, 

तब-तब मन का दीप जला लेती है औरत।। 

 

-डाॅ.क्षमा सिसोदिया

10/10 सेक्टर बी, महाकाल वाणिज्य केन्द्र। 456010 





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