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आधुनिक परिवेश में सिसकती हिन्दी(लेख)


-विजय कनौजिया



आज के आधुनिक परिवेश में मानव जीवन पर आधुनिकता पूरी तरह से हावी होती जा रही है, लोग अंग्रेजी भाषा की तरफ ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं । उन्हें लगता है कि अंग्रेजी भाषा से उनके व्यक्तित्व पर काफी प्रभावशाली प्रभाव पड़ता है, जिससे कि वह बहुत ही गर्व महसूस करते हैं । मानव जीवन की पारिवारिक पृष्ठभूमि अंग्रेजी भाषा की तरफ निरंतर बढ़ रही है । लोग अपनी भावी पीढ़ी को अंग्रेजी भाषा के ज्ञान को अनिवार्यता प्रदान करने की कोशिश में सदैव लगे हैं , जिसके कारण हमारी हिंदी कहीं न कहीं स्वयं को सदैव अपनी उपस्थिति का अहसास कराने के लिए बेबस होती दिखती है ।
भारतीय संस्कार में हिन्दी भाषा की अपनी अलग मिठास रही है । आज भी हमारे समाज में हिन्दी भाषा की अपनी अलग पहचान है , किन्तु आज के आधुनिक परिवेश में हमारे शिक्षण संस्थान अंग्रेजी भाषा पर अपनी शिक्षण प्रणाली को ज्यादा विकसित कर रहे हैं । हिन्दी भाषा के प्रति उनका दायित्व धीरे-धीरे कम होता जा रहा है, जिसके कारण हमारी हिन्दी भाषा अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत है ।
मैं किसी भाषा का विरोध नहीं कर रहा हूँ, किन्तु हमारी मातृ भाषा हिन्दी जो हमारे भारतीय समाज के संस्कारों की धुरी है , उसके अस्तित्व का धूमिल होना हमारे लिए सोचनीय है ।
हमारे अभिवादन की परंपरा 'प्रणाम, नमस्ते, नमस्कार, सुप्रभात, शुभ संध्या' आदि जिसकी रसता हमारे होठों पर मधुर मुस्कान बिखेर देती थी , आज वही हैलो, हाय जैसे नीरस भाषाओं में सिमटती जा रही हैं । जिससे हमारी हिन्दी भाषा की लाचारी स्पष्ट दिखाई देती है ।
आज की हमारी साहित्यिक संस्थाएं भी आधुनिकता के आवरण के साथ हिन्दी साहित्य की सेवा का दिखावा ज्यादा करते हैं, जिसमें साहित्य सेवा के नाम पर हमारी मातृ भाषा के साथ न जाने कितनी ज्यादती हो रही है ।
अतः हमारी मातृ भाषा हिन्दी की वर्तमान स्थिति इस बात की तरफ इंगित करती है कि अगर हमें अपनी मातृ भाषा को गौरवान्वित व सम्मानित करना है तो हमें अपनी आधुनिक जीवन शैली में थोड़े से बदलाव करने होंगे, तभी हमारी हिन्दी को वो स्थान मिल पाएगा जिसकी वो अधिकारी है । अन्यथा यूँ ही आज के आधुनिक परिवेश में हमारी मातृ भाषा सिसकती रहेगी...।।


-विजय कनौजिया
45 जोरबाग
नई दिल्ली-110003
मो0-9818884701


 

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