भारतीयता बहुवचनात्मक है इसमें एकवचन के लिए जगह नहीं होनी चाहिए -अशोक वाजपेयी
उज्जैन। नाट्य संस्था अभिनव रंगमंडल की मासिक संवाद श्रृंखला के अंतर्गत रविवार 2 नवम्बर को सामाजिक विज्ञान शोध संस्थान के सभागार में "लोकतंत्र और भारतीयता का भविष्य" विषय पर सुप्रसिद्ध साहित्यकार, भारत भवन के संस्थापक, रज़ा फाउंडेशन के अध्यक्ष अशोक वाजपेयी का यादगार व्याख्यान हुआ।
संवाद कार्यक्रम की शुरुआत अशोक वाजपेयी, राधावल्लभ त्रिपाठी, अरुण वर्मा एवं कलापिनी कोमकली द्वारा दीप प्रज्वलन से हुई। अशोक वाजपेयी का स्वागत रंगमण्डल के निदेशक शरद शर्मा ने गुलदस्ता देकर किया। स्वागत वक्तव्य में शरद शर्मा ने कहा, 2017 में अशोक जी मुक्तिबोध पर व्याख्यान देने इसी सभागार में आए थे। मैं जो भी हूँ उसका श्रेय अशोक वाजपेयी जी को है। 1991 तक हमारी नियमित मुलाकात होती थीं। मुझे सत्ता द्वारा प्रलोभन दिए गए कि मैं अशोक वाजपेयी को लगातार बुलाना बंद कर दूं तो सब कुछ मिलेगा। मैंने कहा, रिश्तों के साथ समझौते मुझे मंज़ूर नहीं। अशोक जी के कारण मैं विरोध झेलता आया हूँ। आज बेहद ख़ुश हूँ कि अशोक जी हमारे बीच हैं। हम अशोक जी की जन्म शताब्दी उज्जैन में उनके रहते मनाएँगे।
अशोक वाजपेयी ने विषय पर गंभीर, विचारोत्तेजक अपने चिरपरिचित अंदाज़ में विनोद का भी सहारा लेते बहुआयामी दस्तावेज़ी व्याख्यान में कहा कि उज्जैन भविष्य वक्ताओं का नगर है। मैं भविष्य वक्ता नहीं हूँ। आज हमारे सामने भारतीयता की, सभ्यता की, लोकतंत्र की संकट त्रयी है। शुद्ध भारतीयता संभव नहीं है। सिक्ख, बौद्ध, जैन धर्म असहमति के धर्म हैं। बौद्ध, जैन धर्म ईश्वरहीन धर्म हैं। सभ्यता का संकट सभ्यता को न समझने का संकट है। हम संसार के सबसे बड़े बहुधार्मिक और बहुभाषिक देश हैं। भारत की ज्ञान परंपरा सर्वश्रेष्ठ है। आजकल अज्ञान की महिमा दिल्ली के लाल किले से लेकर उज्जैन के फ्रीगंज तक है। प्रतिविचार को महत्व देना भारत की वैश्विक पहचान है।
भाषा की अभद्रता साबित करती है कि आप सभ्य नहीं हैं। धर्मों का अपार शस्त्रीकरण हो गया है। धर्म आक्रामक हैं, हर धर्म अपने ही अध्यात्म से विमुख है। भारत के धर्म लोकतंत्र और भारतीयता से विमुख हैं। होटल नगरी हो गया उज्जैन। ऐसा लगता है उज्जैन होटल में रहता है घर में नहीं। यह भी धर्म के नाम पर हुआ है। जिन्होंने कभी अंग्रेजों से आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ी वे आज मुग़लों से आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं जबकि मुग़ल यहाँ से कुछ लेकर बाहर नहीं गए। घुसपैठिए कौन हैं? क्या वो सब जिन्हें घुसपैठिए कहा जा रहा है वो पुराने भारत के ही लोग नहीं हैं?
आज का लोकतंत्र बहुसंख्यकतावादी है। विपक्ष का दुश्मन है जबकि विपक्ष को 60% वोट मिला है। हम संसार के सबसे मीडियाकर देश में बदल चुके हैं। हम नकल करते हैं। हमारी नकल असल लगती है। अब नकल करने वाले अमेरिका से भगाये जा रहे हैं- यह दुख हमारा सबसे बड़ा दुख बन गया है। क्या विचित्र बात है। हमें अमेरिका में जगह मिल जाए यह हमारे मध्य वर्ग का सपना है। सपना वही है जो दूसरों के लिए देखा जाए। अपने लिए क्या सपना देखना।
दूसरा बनाना प्रमुख है। हर दिन नये दूसरे बनाये जा रहे हैं। धार्मिक दूसरे, सांप्रदायिक दूसरे। कोरोना में हमने तबाही देखी। कोरोना ने सबक दिया, सिखाया हम दूसरों पर कितने निर्भर हैं। पहले हमने कब बर्तन धोए थे? कोरोना में गुरुद्वारों ने अपने द्वार पीड़ितों के लिए खोल दिये। एक गुरुद्वारे को अस्पताल में बदल दिया गया। कोरोना में हमारे मंदिरों ने क्या किया? क्या मदद की?
मुझे जानकर आश्चर्य हुआ था, महाकाल के दीये का तेल सरकार देती है। यह व्यवस्था औरंगजेब ने शुरू की थी। उसने सरकारी मदद चालू की थी कि मंदिरों का, महाकाल का दिया मुसलसल जलता रहे। मंदिरों के पास अपार धन है। मंदिरों की धनराशि का 50% अगर शिक्षा, स्वास्थ्य में लगा दिया जाए तो सरकार के बजट की जरूरत नहीं। लेकिन होता क्या है? सरकार ने 89 हजार विद्यालय बंद कर दिए। आजकल पांच साल का बच्चा मातृभाषा नहीं बोल सकता। सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता है। नागरिक सभ्यता ख़तरे में है। नागरिक को सत्ता का भक्त बनाया जा रहा है। हम बहुतायत की चपेट में हैं। साथ ही साथ बहुत को कम करना चाहते हैं।
हमारा संविधान एक महान स्वप्न है, जो शायद कभी पूरा न हो, लेकिन हम स्वप्न देखना बंद नहीं कर सकते। हमारी सभ्यता प्रश्न पूछकर इतनी देर चली। असहमति को जगह देकर इतनी दूर आई। घृणा, झूठ, हत्या का नया व्यापार शुरू हुआ है। हम समाज को लोकतंत्र विरोधी बना रहे हैं। केवल राजनीतिक व्यवस्था लोकतांत्रिक है। धर्म, राजनीति, बाज़ार, मीडिया ये चार शक्तियां मिलकर हमें संकट मे ले आयीं। ये संगठित हैं। हिंदी नफ़रत की, झूठ की भाषा बन गयी।
सत्ता और बाज़ार मिलकर समाज को अपदस्थ कर रहे हैं। ख़तरा है हम समाज के रूप में नहीं बचेंगे। भारतीयता एक बहुवचनात्मक अवधारणा है। इसमें एकवचन के लिए जगह नहीं थी। नहीं है। नहीं होनी चाहिए। लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन कर लोकतंत्र में कटौती की जा रही है। तो क्या हम ख़ुद को लाचार मान लें? नहीं। कम से कम दिया लेकर तो खड़े हों। स्वयं को चारों धर्म, राजनीति, बाज़ार, मीडिया इन चारों शक्तियों से मुक्त करें। भारतीयता का तकाज़ा है कि हम लाचारी से खुद को मुक्त करें। अपने को लोकतांत्रिक बनाएं। सच को, लोकतंत्र को, भारतीयता को नागरिक ही बचाएंगे कोई अवतार नहीं। बोलें। बोलना चाहिए। निर्भीक होकर सच बोलना चाहिए।
इस अवसर पर अशोक वाजपेयी की कविताओं पर जाने-माने चित्रकार मुकेश बिजौले की चित्र प्रदर्शनी भी लगाई गई थी। कार्यक्रम का संचालन कवि-कथाकार शशिभूषण ने किया एवं आभार माना कवि पाँखुरी वक़्त ने। बड़ी संख्या में उज्जैन और आस-पास के शहरों से लेखक, कलाकार, समाजसेवी और प्रबुद्ध श्रोता उपस्थित रहे।


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