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उम्मीद के चिराग़ जलाए -डॉ सुरेन्द्र मीणा



हमने कब चाहा, हमारी ख़ातिर वक़्त ही ठहर जाए
कब चाहा हमनें, हमारी बात तसल्ली से सुनी जाए

चौराहे पर खड़े हो ख़ुद को कई बार तन्हा महसूस किया
किससे कहते, कोई हमें हमारे मुकाम तक बस छोड़ आए

ख़ामोशी से ठहरा वक़्त भी आगे बढ़ता चलता गया
एक हम थे, ठहरे पानी में भी कश्ती खुद की बहा आए

ठहर कर - रुक कर अब तक बहुत तमाशे देख लिए
सोचा, क्यों न अब ख़ुद ही उम्मीद के चिराग़ जलाए 

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