एक स्त्री के
वैचारिक गर्भ में अंकुरित होता है
परिवार का पहला बीज
एक स्त्री
अपने मन के गर्भनाल से जोड़कर
चलाती है परिवार की सांसें
एक स्त्री
बचपन में नज़रिए वाले काले सूती डोरे और
रक्षा सूत्र में बांध कर रखना चाहती है अपने परिवार को
एक स्त्री
नहीं चाहती अपने दामन पर
कोई भी लांछन के छींटे अपने परिवार के लिए
एक स्त्री
अपनी सम्पूर्ण अस्मिता से ऊपर मानती है
अपने परिवार की मर्यादा को
एक स्त्री
भोर से लेकर रात्रि के अंतिम पहर तक
देती है पल पल अग्नि परीक्षा
बस अपने परिवार के लिए
एक स्त्री
हर संवाद में भी अपने लिए शेष की तलाश कर
खुद को संवार चल पड़ती है बेहतर के लिए
एक स्त्री
अब न सीता, न सावित्री बनाना चाहती है
बस वह स्त्री ही बनी रहना चाहती है
अपने परिवार के लिए
एक स्त्री
आरंभ से अंतिम तक स्वयं संरचना कर
सम्पूर्ण समर्पित कर देना चाहती है
अपने परिवार के लिए
एक स्त्री
बिना किसी किंतु - परंतु के
नख से लेकर शिख तक बस बनी रहना चाहती है
अपने परिवार के लिए
एक स्त्री
गर नहीं जोड़ भी पाए विश्वास की पाई पाई
बस
बन कर रहना चाहती है भरा गुल्लक
अपने परिवार के लिए
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